Book Title: Aptamimansa Tattvadipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 442
________________ कारिका-१०२] तत्त्वदीपिका ३२५ उपेक्षा कैसे संभव है। और यदि वे उपेक्षक हैं, तो आप्त कैसे हो सकते हैं। उक्त शंकाका समाधान यह है कि करुणाके अभावमें भी केवली भगवान् स्वभावसे दुसरोंके दुःखोंको दूर करनेके लिए प्रवृत्ति करते हैं। केवलीके मोहनीय कर्मका अभाव होनेसे मोहके उदयसे होने वाली करुणा संभव नहीं है। ऐसी बात नहीं है कि जो दयालु होता है, वही परके दुःखको दूर करता है। कोई प्राणी करुणाके अभावमें भी स्वभावसे ही दीपककी तरह स्व और परके दुःखकी निवृत्ति करने में प्रवृत्ति कर सकता है । दीपक दयालु होनेके कारण अन्धकारकी निवृत्ति नहीं करता है, किन्तु अन्धकार निवर्तक स्वभाव होनेके कारण ही वैसा करता है। यदि केवलीमें करुणाका सद्भाव है, तो उस करुणाको उत्पन्न करनेका स्वभाव भी मानना पड़ेगा। क्योंकि घातिया कर्मोंका नाश हो जानेसे केवलीमें मोहनीय कर्म करुणाका कारण नहीं हो सकता है। और यदि केवलीमें करुणाको उत्पन्न करनेका स्वभाव माना जाता है, तो उसके स्थानमें स्व और परके दुःखकी निवृत्ति करनेका स्वभाव मान लेनेमें कौनसी बाधा है। यथार्थमें केवली भगवान् तीर्थङ्कर नामकर्मके उदयसे हितोपदेशमें प्रवृत्ति करते हैं। और हितीपदेशके अनुसार आचरण करनेसे संसारके प्राणियोंके दुःखका निराकरण हो जाता है । अतः बुद्धके समान केवली भगवान्की परदुःखनिवृत्तिमें प्रवृत्ति करुणासे नहीं होती है। अतः केवलज्ञानका साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति है, और परम्पराफल उपेक्षा है। मति आदि ज्ञानोंका साक्षात्फल अज्ञाननिवृत्ति ही है, किन्तु परम्पराफल हान, उपादान और उपेक्षा है। यदि मत्यादि ज्ञानोंसे अज्ञाननिवृत्ति न हो तो वे सन्निकर्ष आदिकी तरह प्रमाण ही नहीं हो सकते हैं। मति आदिके द्वारा किसी अर्थको जानकर यदि वह अर्थ इष्ट है, तो उसको ग्रहण किया जाता है, तथा अनिष्ट होनेपर उसको छोड़ दिया जाता है। और प्रयोजनके अभावमें उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। प्रमाणका फल प्रमाणसे कथंचित् भिन्न होता है, और कथंचित् अभिन्न । यदि प्रमाणसे फल सर्वथा भिन्न हो तो यह प्रमाणका फल हैं' ऐसा कहना भी कठिन है। और प्रमाणसे फलको अभिन्न माननेपर दोनोंमेंसे किसी एकका ही सद्भाव रहेगा। इस प्रकार समस्त ज्ञानोंका साक्षात्फल अज्ञाननिवृत्ति है। केवलज्ञानका परम्पराफल उपेक्षा है। और मत्यादि ज्ञानोंका परम्पराफल हान, उपादान और उपेक्षा है। १. तिष्ठन्त्येव पराधीना येषां तु महती कृपा। -प्रमाणवा०१।२०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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