Book Title: Aptamimansa Tattvadipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 438
________________ कारिका-१०१] तत्त्वदीपिका ३२१ कोई प्रमाण प्रत्यभिज्ञानका बाधक भी नहीं है। अतः प्रत्यभिज्ञान भी एक पृथक् प्रमाण है । इसी प्रकार तर्क भी एक पथक प्रमाण है। क्योंकि उसके द्वारा एक ऐसे अर्थका ज्ञान किया जाता है जिसको अन्य कोई प्रमाण नहीं जान सकता । साध्य और साधनमें अविनाभाव सम्बन्धका ज्ञान करना तर्कका काम है। बौद्ध अविनाभाव सम्बन्धका ज्ञान प्रत्यक्षसे नहीं कर सकते हैं। क्योंकि प्रत्यक्ष निकटवर्ती वर्तमान अर्थको ही जानता है । तथा निर्विकल्पक होनेसे वह व्यप्तिज्ञान करने में समर्थ भी नहीं है। यदि अनुमानसे व्याप्तिज्ञान किया जाय तो यहाँ दो विकल्प होते हैंप्रकृत अनुमानसे व्याप्तिज्ञान होगा या अनुमान्तरसे । प्रकृत अनुमानसे व्याप्तिज्ञान करनेमें अन्योन्याश्रय दोष आता है। क्योंकि व्याप्तिज्ञान होने पर अनुमान होगा और अनुमान होने पर व्याप्तिज्ञान होगा। और अनुमान्तरसे व्याप्तिज्ञान मानने में अनवस्था दोषका समागम अनिवार्य है। क्योंकि अनुमानान्तरमें भी व्याप्तिज्ञानके लिए अनुमानान्तर मानना होगा। व्याप्तिज्ञानको अप्रमाण भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि व्याप्तिज्ञानके अप्रमाण होने पर अनुमान भी अप्रमाण ही होगा। इसलिए व्याप्तिका ज्ञान करने वाला प्रमाण प्रत्यक्ष और अनुमानसे भिन्न ही है। उपमान, आगम आदिमें भी तर्कका अन्तर्भाव नहीं हो सकता है। क्योंकि उपमान आदि प्रमाण व्याप्तिज्ञान करने में समर्थ नहीं है। अतः व्याप्तिको ग्रहण करने वाला तर्क एक पृथक् प्रमाण है। ___इस प्रकार स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क ये तीनों पृथक् पृथक् प्रमाण हैं। अनुमान और आगमको तो प्रायः सबने प्रमाण माना है । कुछ लोगोंने उपमान, अर्थापत्ति आदिको भी प्रमाण माना है। किन्तु उपमान, अर्थापत्ति आदि प्रमाणोंका अन्तर्भाव परोक्ष प्रमाणमें ही हो जाता है। उपमानका अन्तर्भाव प्रत्यभिज्ञानमें और अपत्तिका अन्तर्भाव अनुमानमें किया जा सकता है। अतः यह सिद्ध होता है कि प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रमाण हैं । कहा भी है प्रत्यक्षं विशदज्ञानं त्रिधा श्रुतमविप्लवम् । परोक्ष प्रत्यभिज्ञादि प्रमाणे इति संग्रहः ॥ -प्रमाणसंग्रह श्लो० २ विशद ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं। उसके तीन भेद हैं-इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष । तथा श्रुतज्ञान, प्रत्यभिज्ञान आदि २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498