Book Title: Aptamimansa Tattvadipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 436
________________ कारिका - १०१ ] तत्त्वदीपिका ३१९ से उत्पन्न होनेके कारण अनुमान आदि अविशद होते हैं । परन्तु प्रतिभासभेद होने पर भी उनकी प्रमाणतामें कोई अन्तर नहीं आता है । 'तत्त्वज्ञान प्रमाण है ।' यहाँ प्रमाण लक्ष्य है और तत्त्वज्ञान उसका लक्षण है । 'तत्त्वज्ञानमेव प्रमाणम्' और 'प्रमाणमेव तत्त्वज्ञानम्' इस प्रकार 'एव शब्दका प्रयोग 'तत्त्वज्ञान' और 'प्रमाण' दोनों शब्दों के साथ किया जा सकता है । 'तत्त्वज्ञानमेव प्रमाणम्' कहनेका अर्थ यह है कि तत्त्वज्ञान ही प्रमाण होता है, अतत्त्वज्ञान नहीं । और 'प्रमाणमेव तत्त्वज्ञानम्', कहने का अर्थ यह है कि तत्त्वज्ञान प्रमाण ही होता है, अप्रमाण नहीं । तत्त्वज्ञानसे जो फलज्ञानकी उत्पत्ति होती है वह फल ज्ञान भी आगे के फलको उत्पन्न करनेके कारण प्रमाण भी है । इसलिए बौद्धोंका यह कहना ठीक नहीं है कि निर्विकल्पक दर्शनके बाद जो सविकल्पक प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है वह अप्रमाण है । यदि अनधिगत अर्थको न जानने के कारण सविकल्पक प्रत्यक्षको प्रमाण न माना जाय, तो अनुमानको भी प्रमाण नहीं मानना चाहिए | क्योंकि 'सर्वं क्षणिकं सत्त्वात्' यह अनुमान भी निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से अधिगत क्षणिकत्वका ज्ञान करता है । अतः अधिगत क्षणिकत्वको जाननेके कारण वह प्रमाण कैसे हो सकता है । यदि कहा जाय कि क्षणिकत्वके अनुमान द्वारा अनिश्चित क्षणिकत्वका अध्यवसाय होता है, तो ऐसा भी कहा जा सकता है कि प्रत्यक्षसे भी अनिर्णीत अर्थका निर्णय होता है । अतः निर्विकल्पक के बाद होनेवाला सविकल्पक भी निर्विकल्पक के समान ही प्रमाण है । तत्त्वज्ञानका नाम प्रमाण है । तत्त्वज्ञान से ही तत्त्वकी व्यवस्था होती है । तत्त्वज्ञानके विना तो निर्विकल्पक भी प्रमाण नहीं हो सकता है । इसलिए तत्त्वज्ञानको प्रमाण मानने में कोई दोष नहीं है | प्रमाणके दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्षके दो भेद हैं- मुख्य प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष । अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीन मुख्य प्रत्यक्ष हैं । ये तीनों ज्ञान इन्द्रिय और मनकी सहायताके विना केवल आत्मासे उत्पन्न होते हैं । इसलिए इनको मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं । ये तीनों ज्ञान अपने विषयको पूर्णरूप से विशद जानते हैं । पाँच इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होने वाले ज्ञानका नाम सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । यह प्रत्यक्ष अपने विषयको एकदेशसे विशद जानता है । इन्द्रिय और मनसे उत्पत्र ज्ञान यथार्थ में परोक्ष ही है, फिर भी लोकव्यवहारमें इसको प्रत्यक्ष कहते हैं । इसीलिए इसका नाम सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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