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आठवाँ परिच्छेद
कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि दैव से ही सब अर्थोकी प्राप्ति होती है। उनके मतका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं
दैवादेवार्थसिद्धिश्चेद्दवं पौरुषतः कथम् ।
दैवतश्चेदनिर्मोक्षः पौरुषं निष्फलं भवेत् ॥८॥ यदि दैवसे ही अर्थकी सिद्धि होती है, तो पुरुषार्थसे देवकी सिद्धि कैसे होगी। और देवसे ही दैवकी सिद्धि मानने पर कभी भी मोक्ष नहीं होगा। तब मोक्ष प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करना निष्फल ही होगा। ____इस परिच्छेद में कारकरूप उपाय तत्त्वकी परीक्षा की गयी है । उपाय तत्त्व ज्ञापक और कारकके भेदसे दो प्रकार का है। ज्ञापक उपायतत्त्व ज्ञान है और कारक उपायतत्त्व पुरुषार्थ, दैव आदि है। यहाँ इस बातका विचार किया गया है कि पुरुषों को अर्थकी सिद्धि कैसे होती है । कुछ लोग मानते हैं कि दैवसे ही अर्थकी सिद्धि होती है। " अर्थात् दैव ही दृष्ट और अदृष्ट कार्यकी सिद्धिका साधन है। और कुछ लोग कहते हैं कि पुरुषार्थसे ही अर्थकी सिद्धि होती है। अन्य लोग मानते हैं कि स्वर्गादिकी प्राप्ति देवसे होती है, और कृषि आदिकी प्राप्ति पुरुषार्थसे होती है। जो लोग कहते हैं कि दैवसे ही अर्थ की सिद्धि होती है, उनसे यह पूछा जा सकता है, कि दैव की सिद्धि का नियामक क्या है। दैवकी सिद्धि पुरुषार्थसे होती है या दैवसे । यदि दैव की सिद्धि पुरुषार्थ से होती है, तो 'सब अर्थो की सिद्धि दैव से ही होती है', इस कथन में विरोध आता है। यह प्रतिज्ञाहानि है। और देवसे दैवकी सिद्धि मानने पर सदा ही पूर्व देवसे उत्तर देवकी उत्पत्ति होती रहेगी। और कभी भी दैव-परम्परा का नाश नहीं होगा। इस प्रकार दैवका कभी अभाव न होने से किसी को भी मोक्ष नहीं हो सकेगा । अतः मोक्ष प्राप्ति के लिए तपश्चरण आदि पुरुषार्थ करनेसे कोई लाभ नहीं है।
यदि कहा जाय कि पुरुषार्थसे दैव का क्षय होने पर मोक्ष होता है,
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