Book Title: Aptamimansa Tattvadipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 419
________________ ३०२ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१० क्षासे अल्प हैं, फिर भी उनसे आहन्त्यस्वरूप जीवन्मुक्त अवस्थाकी प्राप्ति होती है । इससे सिद्ध होता है कि मोह रहित अल्प ज्ञानसे भी जीवन्मुक्तिकी प्राप्ति होती है। इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थानसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय नामक दशम गुणस्थान पर्यन्त गुणस्थानोंमें रहने वाले जीवोंको कर्मका बन्ध होता ही रहता है। क्योंकि उनका ज्ञान मोह सहित है, और मोह सहित ज्ञानसे त्रिकालमें भी मुक्ति संभव नहीं है। इस प्रकार यह भी निर्विवाद रुपसे सिद्ध होता है कि मोह रहित अल्प ज्ञानसे भी मुक्ति हो जाती है, किन्तु मोह सहित अल्प ज्ञानसे मुक्ति नहीं होती है। ___ 'प्रत्येक कार्य ईश्वर कृत है, कर्मनिमत्तक नहीं, इस प्रकारके न्यायवैशेषिक मतके निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः । तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्धयशुद्धितः ॥९९॥ इच्छा आदि नाना प्रकारके कार्योंकी उत्पत्ति कर्मबन्धके अनुसार होती है । और उस कर्मकी उत्पत्ति अपने हेतुओंसे होती है। जिन्हें कर्मबन्ध होता है वे जीव शुद्धि और अशुद्धिके भेदसे दो प्रकारके होते हैं । ___ संसारमें इच्छा, द्वेष, शरीर, आदि अनेक कार्योंकी जो उत्पत्ति देखी जाती है, वह अपने-अपने कर्मके अनुसार होती है। उस उत्पत्तिका कारण ईश्वर आदि नहीं है । और कर्मकी उत्पत्ति भी राग, द्वेष आदि अपने कारणोंसे होती है। जिस प्रकार बीजसे अंकुर और अंकुरसे बीज उत्पन्न होता है, अर्थात् बीज और अंकुरकी अनादि सन्तति चलती रहती है, उसी प्रकार कर्मसे रागादिकी उत्पत्ति और रागादिसे कर्मकी उत्पत्ति होती रहती है। अर्थात् द्रव्य कर्म और भाव कर्मको अनादि सन्तति चलती रहती है। संसारका सारा चक्र कर्मके अनुसार ही चलता है। द्रव्यकर्म और भावकर्मके भेदसे कर्म दो प्रकारका है। रागादिके निमित्तसे पौद्गलिक कार्मण-वर्गणाएँ ज्ञानावरणादिरूपसे परिणत होकर आत्माके साथ मिल जाती हैं । यही द्रव्यकर्म है । तथा राग, द्वेष और मोह ये भावकर्म कहलाते हैं। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि यदि कर्मबन्धके अनुसार ही संसार होता है, तो किसीको मुक्ति और किसीको संसार क्यों होता है। कर्मबन्ध होते रहनेके कारण सबको समानरूपसे संसार ही होना चाहिए। इसका उत्तर यह है कि जीव शुद्धिके कारण मुक्तिको प्राप्त करता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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