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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१० उत्पत्तिमें अनेक प्राणी निमित्त कारण होते ही हैं। यह पक्ष हमें सिद्ध (इष्ट) है। अतः इस पक्षको स्वीकार करनेसे हमारी इष्टसिद्धि और नैयायिकोंको अनिष्टापत्ति होती है। कर्तृत्वके सस्बन्धमें एक बात यह भी विचारणीय है कि शरीर आदिका कर्ता सर्वज्ञ और वीतराग है, अथवा असर्वज्ञ और अवीतराग। प्रथम पक्षमें घटादि द्वारा कार्यत्व हेतु व्यभिचारी हो जाता है । घटमें कार्यत्व तो है, किन्तु उसका कर्ता कुम्भकार सर्वज्ञ और वीतराग नहीं है। यदि शरीर आदिका कर्ता असर्वज्ञ और अवीतराग है, तो ऐसा माननेसे नैयायिकको अनिष्टका प्रसंग उपस्थित होता है। क्योंकि उन्होंने ईश्वरको सर्वज्ञ और वीतराग माना है । कार्यत्व हेतुमें भी दो विकल्प होते हैं। शरीर आदिमें सर्वथा कार्यत्व है या कथंचित् । शरीर आदिमें सर्वथा कार्यत्व असिद्ध है। क्योंकि शरीर आदि कथंचित् कारण भी होते हैं। और शरीर आदिमें कथंचित् कार्यत्व माननेपर कथंचित् बुद्धिमान् कर्ताकी ही सिद्धि होगी, सर्वथा बुद्धिमान्की नहीं। ईश्वर साधक अनुमानको 'अकृत्रिमं जगत् दृष्टकर्तृकविलक्षणत्वात्', 'संसारका कोई कर्ता नहीं है, क्योंकि जिनका कर्ता देखा गया है, उनसे वह विलक्षण है', इस अनुमानसे बाधित होनेके कारण यह सिद्ध होता है कि संसार ईश्वरकृत नहीं है ।
संसारका चक्र अनादिसे चला आ रहा है। जीव और कर्मका सम्बन्ध भी अनादि है। परन्तु अनादि होनेपर भी वह सान्त है । संवर और निर्जराके द्वारा कर्मका नाश हो जानेपर यह जीव कर्मबन्धनसे मुक्त होकर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्यको प्राप्त करके लोकके अग्रभागमें स्थित सिद्धशिलापर विराजमान हो जाता है। और फिर कभी भी वहाँसे लौटकर संसारमें नहीं आता है। किन्तु संसार अवस्थामें कर्मबन्धसे रागादि और रागादिसे कर्मबन्ध उसी प्रकार होता रहता है, जैसे बीजसे अंकुर और अकुरसे बीज उत्पन्न होता रहता है।
यहाँ कोई कह सकता है कि अचेतन कर्मबन्ध रागादिको कैसे उत्पन्न कर सकता है । तथा चेतन रागादि अचेतन कर्मबन्धको कैसे कर सकता है। इसका उत्तर यही है कि उसका ऐसा ही स्वभाव है। और किसीके स्वभावके विषयमें उपालम्भ नहीं दिया जा सकता। ऐसा कहना ठीक नहीं है कि अग्नि उष्ण क्यों है, और जल ठण्डा क्यों है। अचेतन पदार्थ चेतन पर और चेतन पदार्थ अचेतनपर अपना प्रभाव डालता
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