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कारिका-१०१] तत्त्वदीपिका
३१३ की उत्पत्तिके पहले मिथ्यादर्शनादिकी अनादि संततिरूप अशद्धिकी अभिव्यक्ति अनादि है। और सम्यग्दर्शनादिकी उत्पत्तिरूप शुद्धिकी अभिव्यक्ति सादि है। ___एक शक्तिकी व्यक्ति सादि और दूसरी शक्तिकी व्यक्ति अनादि क्यों है ? ऐसा प्रश्न उचित नहीं है। क्योंकि वस्तुका स्वभाव तर्कका विषय नहीं होता है। अग्नि उष्ण क्यों है, ऐसा तक करना ठीक नहीं है। अग्नि उष्ण इसलिए है कि उसका स्वभाव उष्ण होनेका है। इसी प्रकार एक शक्तिकी व्यक्ति सादि है, और दूसरीकी व्यक्ति अनादि है, क्योंकि उनका स्वभाव ही वैसा है।
यहाँ यह शंका हो सकती है कि जो वस्तु प्रत्यक्षसिद्ध है उसके विषयमें किये गये प्रश्नोंका उत्तर उसके स्वभावके द्वारा देना ठीक है। किन्त अप्रत्यक्ष वस्तुओंके विषयमें किये गये प्रश्नोंका उत्तर उनके स्वभावसे देना उचित नहीं है। उक्त शंका ठीक नहीं है। क्योंकि जो वस्त प्रमाणसिद्ध है, चाहे वह प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध हो, चाहे अनुमान प्रमाण सिद्ध हो, और चाहे आगम प्रमाण सिद्ध हो, वह समानरूपसे प्रामाणिक है, और उसमें स्वभावके द्वारा उत्तर देना भी समान रूपसे युक्त एवं तर्कसंगत है। अतः भव्यत्व और अभव्यत्व नामक शक्तियाँ यद्यपि छद्मस्थ पुरुषोंको परोक्ष हैं, फिर भी स्वभावके अनुसार उनकी सादि और अनादि अभिव्यक्ति मानने में कोई दोष नहीं है । प्रमाण और नयका निरूपण करनेके लिए आचार्य कहते हैं
तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् ।
क्रममावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥१०१॥ हे भगवन् ! आपके मतमें तत्त्वज्ञानका नाम प्रमाण है। तत्त्वज्ञान दो प्रकारका है-अक्रमभावी और क्रमभावी। जो एक साथ सम्पूर्ण पदार्थोंको जानता है, ऐसा केवलज्ञान अक्रमभावी है। तथा जो क्रमसे पदार्थोंको जानते हैं, ऐसे मति आदि चार ज्ञान क्रमभावी हैं। अक्रमभावी ज्ञान स्याद्वादरूप होता है। किन्तु क्रमभावी ज्ञान स्याद्वाद और नय दोनों रूप होता है।
यहाँ प्रमाणके विषयमें विचार किया गया है। प्रमाणके विषयमें मुख्यरूपसे चार बातें विचारणीय हैं-लक्षण, संख्या, विषय और फल । प्रमाण मानने वालोंको इन चार बातोंके विषयमें विवाद है। बौद्ध
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