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आप्तमीमांसा [ परिच्छेद-१० निर्विकल्पक ज्ञानको प्रमाण मानते हैं, नयायिक सन्निकर्षको प्रमाण मानते हैं, और सांख्य इन्द्रियवृत्तिको प्रमाण मानते हैं। इन लोगोंके द्वारा माने गए प्रमाणके लक्षण सदोष हैं। सन्निकर्ष आदिमें स्वविषयकी प्रमिति ( अज्ञाननिवृत्ति ) करानेकी सामर्थ्य न होनेसे वे प्रमाण नहीं हो सकते हैं । बौद्ध द्वारा माना गया निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अनिश्चयात्मक होनेसे प्रमाण नहीं है । नैयायिक द्वारा माना गया सन्निकर्ष अज्ञानरूप होनेसे प्रमाण नहीं है। सांख्य द्वारा मानी गयी इन्द्रियवृत्ति भी अचेतन एवं अज्ञानरूप होनेसे प्रमाण नहीं है। सांख्यमतमें इन्द्रियाँ प्रकृतिजन्य होनेसे अचेतन हैं। इसलिए इन्द्रियवृत्ति भी अचेतन है। अतः सन्निकर्ष आदि अपने विषयकी प्रमितिके प्रति साधकतम न होनेसे प्रमाण नहीं हैं। जो स्व और पर ( अर्थ ) का निश्चयात्मक ज्ञान है, वही प्रमितिके प्रति साधकतम होता है, अज्ञानरूप सन्निकर्षादि नहीं। जिसके होने पर प्रमिति हो और जिसके न होने पर प्रमिति न हो वह प्रमितिका साधकतम होता है । सन्निकर्ष आदिके होने पर भी विषयकी प्रमिति नहीं होती है, जैसे कि संशय आदि में। और सन्निकर्ष आदिके अभाव में भी प्रमिति हो जाती है। जैसे कि विशेष्यके साथ सन्निकर्ष न होने पर भी विशेषणके ज्ञानसे विशेष्यका ज्ञान हो जाता है। इसलिए सन्निकर्ष आदि प्रमाण नहीं हैं, किन्तु तत्त्वज्ञान ही प्रमाण है। तत्त्वज्ञानका ही पर्यायवाची शब्द सम्यग्ज्ञान है। प्रमाणके लक्षणमें ज्ञान विशेषणसे अज्ञानरूप सन्निकर्ष आदिका व्यवच्छेद हो जाता है। और तत्त्व विशेषणसे संशय आदि मिथ्याज्ञानोंका व्यवच्छेद हो जाता है। प्रमाण प्रमितिके प्रति साधकतम होता है। किन्तु प्रमाता और प्रमेय प्रमितिके प्रति साधकतम नहीं हैं, साधक अवश्य हैं। प्रमाता कर्ता है और प्रमेय कर्म है। इनको प्रमितिका साधकतम न होनेसे इनमें प्रमाण त्वका प्रसंग नहीं आता है। इसलिए 'तत्त्वज्ञान प्रमाण है' यह लक्षण निर्दोष होनेसे सर्वजनग्राह्य है। __तत्त्वज्ञान सर्वथा प्रमाणरूप ही हो, ऐसी बात नहीं है। तत्त्वज्ञान को प्रमाण माननेमें भी अनेकान्त है। अर्थात् तत्त्वज्ञान कथंचित् प्रमाण है, सर्वथा नहीं। एक वस्तुमें अनेक आकार रहते हैं। उन आकारोंमेंसे जिस आकारसे तत्त्व का ज्ञान होता है उसकी अपेक्षासे वह ज्ञान प्रमाण है, और शेष आकारोंकी अपेक्षासे वह प्रमाण नहीं है। प्रत्यक्ष और प्रत्यक्षाभासमें भी मिश्रित प्रामाण्य और अप्रामाण्य रहता है। एक सर्वथा प्रमाण और दूसरा सर्वथा अप्रमाण नहीं है। प्रत्यक्षमें भी कथंचित्
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