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कारिका-९९] तत्त्वदीपिका
३०७ बुद्धि आदि उतने ही प्रदेशमें रहते हैं जितने प्रदेशमें शरीर रहता है। इससे सिद्ध होता है कि शरीरके होने पर ही बुद्धि आदि होते हैं, और शरीरके अभाव में नहीं होते हैं। अतः शरीर रहित ईश्वरमें बुद्धि इच्छा और प्रयत्नका सद्भाव संभव न होने से वह शरीर आदिका कर्ता नहीं हो सकता है। ___ यहाँ ऐसी आशंका हो सकती है कि शरीर आदिकी उत्पत्तिका प्रधान कारण कोई चेतन विशेष (ईश्वर) अवश्य होना चाहिए। शरीर आदिकी उत्पत्तिके परमाण आदि जो कारण हैं वे अचेतन हैं। अत: वे वास्य आदिकी तरह चेतनसे अधिष्ठित होकर ही कार्यकी उत्पत्ति करते हैं। बढ़ईका जो वास्य (वसूला) है, वह चेतन बढ़ईसे अधिष्ठित होकर ही काष्ठमें छेदनभेदन आदि अर्थक्रिया करता है। अतः जो चेतन समस्त कारकोंका अधिष्ठाता है वही बुद्धिमान् ईश्वर है। वह अनादि और अनन्त कार्य-सन्तानमें निमित्त कारण होनेसे अनादि और अनन्त है। अनादि और अनन्त होनेसे ईश्वर शरीर और इन्द्रिय रहित भी सिद्ध होता है। इस प्रकार ईश्वरमें अशरीरत्व अनादि है, तथा बुद्धि, इच्छा और प्रयत्न भी अनादि हैं। शरीरादिके अचेतन कारणोंमें जो स्थित्वाप्रवर्तन (ठहर कर प्रवृत्ति करना) अर्थक्रियाकारित्व आदि पाये जाते हैं, वे चेतनाधिष्ठित अचेतनमें ही संभव हैं । इसलिए अचेतन कारणोंका जो अधिष्ठाता है वही ईश्वर है ।
उक्त कथन भी सारहीन है। क्योंकि ईश्वरमें अनादि और अनन्त अशरीरत्वकी सिद्धि नहीं हो सकती है। न्यायमतके अनुसार काय और इन्द्रियको उत्पत्तिके पहले संसारी आत्माओंमें अशरीरत्व तो है, किन्तु वह अनादि और अनन्त नहीं है। उसी प्रकार ईश्वरका अशरीरत्व भी अनादि और अनन्त नहीं होगा। इसी प्रकार संसारी प्राणियोंकी बुद्धि आदिकी तरह ईश्वरकी बुद्धि आदि भी नित्य नहीं हो सकते हैं। ईश्वरमें अशरीरत्वकी सिद्धि न हो सकनेसे यदि ईश्वरको शरीर सहित माना जाय तो भी ठीक नहीं है। क्योंकि यदि ईश्वरके शरीरका कारण कोई बुद्धिमान् नहीं है, तो उसके द्वारा कार्यत्व आदि हेतुओंमें व्यभिचार आयगा। यदि ईश्वरके शरीरका कारण ईश्वर ही है तो वह अपने अनेक शरीरोंकी उत्पत्तिमें ही लगा रहेगा ! इस प्रकार उसे अन्य कार्योंको करनेका अवसर ही नहीं मिलेगा। अतः अपने उपभोग योग्य शरीरादिकी उत्पत्तिमें संसारी आत्माओंको ही निमित्त कारण मानना युक्तिसंगत है, ईश्वरको नहीं। अत: कार्यत्व, अचेतनोपादानत्व, सन्निवेशविशिष्टत्व आदि हेतु ईश्वरके गमक नहीं हैं।
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