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कारिका-३७] तत्त्वदीपिका
३०३ और अशुद्धिके कारण संसारमें परिभ्रमण करता है । स्याद्वादियोंके यहाँ मीमांसकोंकी तरह जीव न तो सर्वदा अशुद्ध है, और सांख्योंकी तरह न सर्वदा शुद्ध है । संसारी जीवके अनादिकालसे चले आ रहे मिथ्यादर्शनादिके सम्बन्धसे अशुद्ध होने पर भी उसमें सम्यग्दर्शनादिके प्रादुर्भावसे शद्ध होनेकी शक्ति है । और काललब्धिके मिलने पर वह शुद्ध होकर मुक्तिको प्राप्त करता है । जो जीव शुद्ध हो जाते हैं वे मोक्षमें चले जाते हैं, और अशुद्ध जीव संसारमें परिभ्रमण करते रहते हैं। शुद्ध अथवा शुद्ध होने योग्य जीवोंकी अपेक्षा अशुद्ध जीव बहुत अधिक हैं । सब जीवोंके शुद्ध हो जानेकी कल्पना करना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि सब जीव शुद्ध हो जावें तो संसार शून्य ही हो जायगा। इस प्रकार जीव संसारी और मुक्तके भेदसे दो प्रकारके होते हैं।
अब विचार यह करना है कि संसारका कारण ईश्वरादि क्यों नहीं हैं। यह एक साधारण नियम है कि अनेक कार्य एक स्वभाववाले एक कारणसे उत्पन्न नहीं हो सकते हैं। अनेक कार्योंकी उत्पत्तिके लिए अनेक कारणोंकी या अनेक स्वभाववाले कारणकी आवश्यकता होती है। इस संसारमें सुख, दुःख, शरीर आदि अनेक कार्योंकी उपलब्धि देखी जाती है। इसलिए इस संसारका कर्ता एक स्वभाववाला ईश्वर नहीं हो सकता है । शालिके बीजसे शालिके अंकुरकी ही उत्पत्ति होती है, यव, गोधूम आदिके अंकुरकी नहीं। क्योंकि शालिके बीजका स्वभाव केवल शालिके अंकुरको उत्पन्न करनेका है। कारणके एकरूप होने पर नाना कार्य नहीं हो सकते हैं। जो पदार्थ सर्वथा अपरिणामी है, चाहे वह नित्य हो या क्षणिक, उसमें अर्थक्रिया नहीं हो सकती है। वस्तुका लक्षण अर्थक्रिया करना है। जो कुछ भी अर्थक्रिया नहीं करता है उसका अस्तित्व ही संभव नहीं है । अर्थक्रिया दो प्रकारसे होती है-क्रमसे और युगपत् । जिसमें कुछ भी परिणमन नहीं होता है, चाहे वह क्षणिक हो या नित्य, उसमें न क्रमसे अर्थक्रिया हो सकती है और न युगपत् । सांख्य द्वारा माने गये नित्य पदार्थमें और बौद्ध द्वारा माने गए क्षणिक पदार्थमें अर्थक्रियाका अभाव पहले बतलाया जा चुका है। न्याय-वैशेषिक द्वारा माना गया ईश्वर भी अपरिणामी और नित्य है। इसलिए उसके द्वारा क्रमसे अथवा युगपत् अर्थक्रिया नहीं हो सकती है। और अर्थक्रियाके अभावमें सत्त्व का अभाव भी सुनिश्चित है । फिर उसमें वस्तुत्व की संभावना कैसे की जा सकती है। जिस ईश्वरके सद्भावकी ही संभावना नहीं है उसको देश, काल, अवस्था और स्वभावसे भिन्न शरीर, इन्द्रिय, भुवन आदि का
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