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कारिका-९५] तत्त्वदीपिका
२९१ शुक्ल ध्यान विशुद्धिका स्वभाव है । इसी प्रकार मिथ्यादर्शनादि संक्लेशके कारण हैं, हिंसादि क्रिया संक्लेशका कार्य है, तथा आर्तध्यान और रौद्रध्यान संक्लेशका स्वभाव है।
अपनी आत्मामें होने वाला सुख यदि विशुद्धिका अंग है, तो उससे पुण्यका आस्रव होता है, और यदि संक्लेशका अंग है, तो उससे पापका आस्रव होता है। तथा अपनी आत्मामें होने वाला दुःख यदि विशुद्धिका अंग है, तो उससे पुण्यका आस्रव होता है, और यदि संक्लेशका अंग है, तो उससे पापका आस्रव होता है। इसी प्रकार दूसरेकी आत्मामें होने वाला सुख यदि विशुद्धिका अंग है, तो उसे पुण्यका आस्रव होता है। और यदि संक्लेशका अंग है, तो उससे पापका आस्रव होता है। तथा दूसरेकी आत्मामें होनेवाला दुःख यदि विशुद्धिका अंग है, तो उससे पुण्यका आस्रव होता है। और यदि संक्लेशका अंग है, तो उससे पापका आस्रव होता है। इस प्रकार परको दुःख देनेसे पापका ही बन्ध नहीं होता है, किन्तु पुण्यका भी बन्ध होता है। तथा परको सुख देनेसे पुण्यका ही बन्ध होता है, किन्तु पापका भी बन्ध होता है। इसी प्रकार स्वको दुःख देनेसे पुण्यका ही बन्ध नहीं होता है, किन्तु पापका भी बन्ध होता है। तथा स्वको सुख देनेसे पापका ही बन्ध नहीं होता है, किन्तु पुण्यका भी बन्ध होता है। तात्पर्य यह है कि चाहे किसीको सुख हो, अथवा दुःख हो, इससे पुण्य और पापके बन्धमें कोई अन्तर नहीं आता है। विशुद्धि और संक्लेशके द्वारा अन्तर अवश्य आता है। विशुद्धिके होनेपर पुण्यास्रव होता है, और संक्लेशके होनेसे पापास्रव होता है, चाहे स्व और परको सुख हो या दुःख । विशुद्धि और संक्लेशके अभावमें कर्मका आस्रव नहीं होता है। अथवा उसका कोई फल नहीं होता है।
तत्त्वार्थसूत्रमें 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः' इस सूत्रके द्वारा मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगके रूपमें बन्धके जिन कारणोंका निर्देश किया गया है, वे सब संक्लेश परिणाम ही हैं। क्योंकि आर्त और रौद्र परिणामोंके कारण होनेसे वे संक्लेशांग होते हैं। जैसे कि आर्त और रौद्र परिणामोंके कार्य होनेसे हिंसादि क्रिया संक्लेशांग है। अतः स्वामी समन्तभद्रके कथनसे उक्त सूत्रका कोई विरोध नहीं है। इसी प्रकार 'कायवाङ्मनःकर्म योगः', 'स आस्रवः', 'शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य' इन तीन सूत्रों द्वारा शुभ योगको पुण्यास्रवका और अशुभ योगको पापास्रवका जो कारण बतलाया है, उसमें भी
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