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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-८ विरोधानोभयकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् ।।
अवाच्यतैकान्तेप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥१०॥ स्याद्वादन्यायसे द्वेष रखने वालोंके यहाँ विरोध आनेके कारण उभयकात्म्य नहीं बनता है । और अवाच्यतैकान्तमें भी 'अवाच्य' शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
दैवैकान्त और पौरुषकान्त ये दो एकान्त सर्वथा विरोधी हैं । यदि सब अर्थोकी सिद्धि देवसे ही होती है, तो पौरुषसे अर्थोकी सिद्धि होने में विरोध है । और यदि पौरुषसे ही सब अर्थोकी सिद्धि होती है, तो दैवसे अर्थोंकी सिद्धि होने में विरोध है। एक साथ दोनों एकान्त किसी भी प्रकार संभव नहीं हैं। जो लोग पदार्थोकी सिद्धिके विषयमें अवाच्यतैकान्त मानते हैं, उनका वैसा मानना भी उचित नहीं है । क्योंकि अवाच्यतैकान्तमें अवाच्य शब्दका प्रयोग संभव नहीं है। यदि अर्थ सर्वथा अवाच्य है, तो अवाच्य शब्दका वाच्य कैसे हो सकता है। इस प्रकार उभयैकान्त और अवाच्यतैकान्त दोनों असंगत हैं।
एकान्तका निराकरण करके अनेकान्तकी सिद्धि करनेके लिए आचार्य कहते हैं
अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदेवतः ।।
बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥९॥ किसी को अबुद्धिपूर्वक जो इष्ट और अनिष्ट अर्थकी प्राप्ति होती है वह अपने दैवसे होती है। और बुद्धिपूर्वक जो इष्ट और अनिष्ट अर्थकी प्राप्ति होती है वह अपने पौरुषसे होती है। __विना विचारे ही अथवा विना इच्छाके ही जो वस्तु प्राप्त हो जाती है, चाहे वह अनुकूल हो या प्रतिकूल, वह दैवसे प्राप्त होती है। अर्थात् इस प्रकारकी प्राप्तिका प्रधान कारण दैव होता है, और वहाँ पुरुषार्थ गौणरूपसे विद्यमान रहता है। ऐसा नहीं है कि वहाँ पुरुषार्थका सर्वथा अभाव रहता हो। इसीप्रकार विचार पूर्वक जो वस्तुकी प्राप्ति होती है, चाहे वह अनुकूल हो या प्रतिकूल, उस प्राप्तिका प्रधान कारण पुरुषार्थ है, और दैव वहाँ गौणरूपसे कारण होता है। दैवका वहाँ सर्वथा अभाव नहीं रहता है। किसी भी पदार्थकी सिद्धि न तो सर्वथा दैवसे होती है, और न सर्वथा पुरुषार्थसे, किन्तु दोनोंकी अपेक्षासे ही सिद्धि होती है।
अब यहाँ यह विचार करना है कि दैवका अर्थ क्या है, और पुरु
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