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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-७ है। इस लिए दोनों एकान्तोंके सर्वथा विरोधी होनेसे उभयकान्तकी सिद्धि किसी प्रकार संभव नहीं है। जो लोग अवाच्यतैकान्त मानते हैं, उनका मत भी ठीक नहीं हैं। क्योंकि यदि अन्तरङ्गाथैकान्त और बहिरङ्गार्थेकान्त इन दोनों दृष्टियोंसे तत्त्व सर्वथा अवाच्य है, तो वह 'अवाच्य' शब्दका भी वाच्य नहीं हो सकता है। क्योंकि अवाच्य शब्दका वाच्य होने पर तत्त्व कथंचित् वाच्य हो जाता है। अतः अवाच्यतैकान्त भी युक्तिविरुद्ध है। .
प्रमाण और प्रमाणाभासके विषयमें अनेकान्त की प्रक्रिया को बतलानके लिए आचार्य कहते हैं । - भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिवः । .
बहिः प्रमेयापेक्षायांप्रमाणं तन्निभं च ते ॥८३॥ हे भगवन् ! आपके मतमें भाव ( ज्ञान ) को प्रमेय माननेकी अपेक्षा से कोई ज्ञान प्रमाणाभास नहीं है। और बाह्य अर्थको प्रमेय माननेकी अपेक्षासे ज्ञान प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों होता है।
इस कारिकामें जो भाव शब्द आया है, वह ज्ञानके लिए प्रयुक्त किया गया है। ज्ञानको प्रमेय माननेकी अपेक्षासे अर्थात् ज्ञानके स्वसंवेदनकी अपेक्षासे सब ज्ञान प्रमाण हैं। सम्यग्ज्ञानका भी स्वसंवेदन होता है, और मिथ्याज्ञानका भी। इस दृष्टिसे दोनों ज्ञान प्रमाण हैं। सब ज्ञानोंका स्वसंवेदनप्रत्यक्ष होता है। सब ज्ञानोंमें सत्त्व, चेतनत्व, ज्ञानत्व, आदि धर्मोंकी दृष्टिसे समानता भी है। अतः इस अपेक्षासे सब ज्ञान कथंचित् प्रमाण हैं, और कोई ज्ञान प्रमाणाभास नहीं है । सब ज्ञानोंके स्वसंवेदनप्रत्यक्षमें बौद्धोंको भी कोई विवाद नहीं है। उन्होंने सब चित्त ( सामान्य ज्ञान ) और चैत्तों (विशेष ज्ञान) का स्वसंवेदनप्रत्यक्ष माना है । प्रत्येक ज्ञानका स्वसंवेदनप्रत्यक्ष मानना आवश्यक भी है । ऐसा मानना ठीक नहीं है कि निर्विकल्पक होनेसे स्वसंवेदनप्रत्यक्ष प्रमाण है, और सविकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाणाभास है । क्योंकि कोई भी ज्ञान तभी प्रमाण हो सकता है, जब वह स्वार्थव्यवसायात्मक हो। निर्विकल्पक या अनिश्चयात्मक कोई भी ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता है । यदि ज्ञानका स्वसंवेदनप्रत्यक्ष न माना जाय तो ज्ञानकी सिद्धि अनुमानसे मानना
१. सर्वचित्तचत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम् ।
-न्यायबि० पृ०.१४
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