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कारिका-८७] तत्त्वदीपिका
२७९ बौद्धोंके यहाँ अभ्रान्त ज्ञानको प्रमाण माना गया है। जब प्रमाण ही मिथ्या है तो विज्ञानाद्वैतवादीके इष्ट तत्त्व अन्तर्जेयरूप अर्थकी सिद्धि कैसे हो सकती है। और प्रमाणके अभावमें भी इष्ट तत्त्वकी सिद्धि मानने पर सभीके इष्ट तत्त्वोंको माननेका प्रसंग उपस्थित होगा।
उक्त कारिकामें 'बाह्यार्थौ तादृशेतरौ' ऐसा द्विवचनान्त पाठ है । इससे प्रतीत होता है कि अन्तर्जेय और वहिर्जेयके भेदसे बाह्य अर्थ दो प्रकारका माना गया है। घटादि पदार्थ तो बाह्य अर्थ हैं ही, किन्तु ग्राहककी अपेक्षासे अन्तर्जेयको भी बाह्य अर्थ कहा है। विज्ञानका ग्रहण भी विज्ञानके द्वारा होता है, अतः विज्ञान भी बाह्य अर्थ है । विज्ञानाद्वंतवादीको अन्तर्जेय इष्ट एवं प्रमाण है, किन्तु बहिर्जेय अनिष्ट एवं अप्रमाण है । किन्तु प्रमाणके भ्रान्त होने पर दोनों बाह्य अर्थ समानरूपसे मिथ्या होंगे। फिर एकको हेय और दूसरेको उपादेय कैसे बतलाया जा सकता है । अतः अन्तर्जेयकी सिद्धिके लिए अभ्रान्त प्रमाणका मानना आवश्यक है । और जब अभ्रान्त प्रमाणको मान लिया तो प्रमाणसे प्रतिपन्न बाह्य अर्थके मानने में कौनसी बाधा है।
बाह्य अर्थक अभावमें प्रमाण और प्रमाणाभासको व्यवस्था नहीं बन सकती है । इस बातको बतलानेके लिए आचार्य कहते हैं
बुद्धिशब्दप्रमाणत्वं बाह्यार्थे सति नासति ।
सत्यानृतव्यवस्थेवं युज्यतेप्त्यिनाप्तिषु ।।८७।। बुद्धि और शब्दमें प्रमाणता बाह्य अर्थके होनेपर होती है, बाह्य अर्थक अभावमें नहीं। अर्थकी प्राप्ति होनेपर सत्यकी व्यवस्था और प्राप्ति न होनेपर असत्यकी व्यवस्था की जाती है।
प्रमाण दो प्रकारका माना जा सकता है-एक बुद्धिरूप और दूसरा शब्दरूप । स्वयं अपनेको ज्ञान करनेके लिए बुद्धि प्रमाणकी आवश्यकता होती है, और दूसरोंको ज्ञान करानेके लिए शब्द प्रमाणकी आवश्यकता होती है। बुद्धि प्रमाणके द्वारा दूसरोंके लिए प्रतिपादन न हो सकनेके कारण शब्द प्रमाणका मानना आवश्यक है। बुद्धि और शब्दमें प्रमाणता तभी हो सकती है, जब बाह्य अर्थका सद्भाव हो, तथा बुद्धि और शब्दने जिस अर्थको जाना है, उसकी प्राप्ति हो । बुद्धि और शब्दने जिस अर्थको जाना है, यदि वह प्राप्त नहीं होता है, तो वहाँ बुद्धि और शब्द अप्रमाण हैं। बुद्धि और शब्दका काम स्वपक्षसिद्धि करना और परपक्षमें दूषण देना है। स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष-दूषण भी बाह्य अर्थके होनेपर ही हो सकते
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