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आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-७ बौद्ध शब्दका उपादान (आश्रय अथवा वाच्य) अभाव (अन्यापोह) को मानते हैं। उनका ऐसा मानना सर्वथा अनुचित है । शब्दका उपादान अभाव तभी हो सकता है, जब पहले उसका उपादान भाव माना जाय । गो शब्द पहले गौका कथन करके ही अन्य पदार्थों का निषेध करता है । गो शब्दका वाच्य गौ भी है, और अगोव्यावृत्ति भी है। किन्तु मुख्य वाच्य गौ ही है, अगोव्यावृत्ति तो गौणरूपसे गो शब्दका वाच्य है । अतः शब्दका उपादान अभाव नहीं है, किन्तु भाव ही है। इसलिए समस्त संज्ञाओंका अपना वास्तविक बाह्य अर्थ मानना आवश्यक है। माया आदि भ्रान्ति-संज्ञाओंका भी भ्रान्तिरूप बाह्य अर्थ होता है। यदि माया आदि भ्रान्ति-सज्ञाओंका भ्रान्तिरूप बाह्य अर्थ न हो तो उनके द्वारा भ्रान्तिरूप अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है। और ऐसा होनेपर भ्रान्ति-संज्ञाओंमें भी प्रमाणत्वका प्रसंग उपस्थित होगा। अर्थात् भ्रान्तिको भी सम्यज्ञान मानना पड़ेगा। अतः जिस प्रकार प्रमाका ज्ञानरूप बाह्य अर्थ है, उसीप्रकार माया आदि भ्रान्तिसंज्ञाओंका भी भ्रान्तिरूप बाह्य अर्थ है। खरविषाण, गगनकुसुम आदि संज्ञाओंका भी अपना बाह्य अर्थ होता है। उनका बाह्य अर्थ अभाव है। अभावरूप बाह्य अर्थके न माननेपर उनके भावका प्रसंग उपस्थित होता है। जब सब संज्ञाओंका बाह्य अर्थ पाया जाता है, तो जीव शब्दका भी वस्तुभूत बाह्य अर्थ मानना आवश्यक है। और वह अर्थ हर्ष, विषाद, सुख, दुःख आदि अनेक पर्यायरूप है, ज्ञान-दर्शनवान् है, प्रत्येक शरीरमें भिन्न-भिन्न है, एवं प्रत्येक प्राणीको स्वानुभवगम्य है। संज्ञात्व हेतुको निर्दोष सिद्ध करनेके लिए आचार्य कहते हैं
बुद्धिशब्दार्थसंज्ञास्तास्तिस्रो बुद्धयादिवाचकाः ।
तुल्या बुद्धयादिबोधाश्च त्रयस्तत्प्रतिबिम्बकाः ॥८॥ बुद्धि संज्ञा, शब्द संज्ञा और अर्थ संज्ञा ये तीन संज्ञाएँ क्रमशः बुद्धि, शब्द और अर्थकी समानरूपसे वाचक हैं। और उन संज्ञाओंके प्रतिविम्ब स्वरूप बुद्धि आदिका बोध भी समानरूपसे होता है ।
मीमांसक कहते हैं ..-'अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामानः' अर्थ, शब्द और ज्ञान ये तीनों समान संज्ञाएँ हैं। अतः जीव अर्थ, जीव शब्द और जीव बुद्धि इन तीनोंकी जीवसंज्ञा है। उनमेंसे जीव अर्थ-वाचक जीव शब्दका ही बाह्य अर्थ पाया जाता है, शब्द और बुद्धि-वाचक जीव शब्दका कोई बाह्य अर्थ नहीं है। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि जो संज्ञा
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