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कारिका-३५] तत्त्वदीपिका
१९३ अर्थ यह होगा कि एक पदार्थ सत् है, और दूसरा असत् है । सब पदार्थोंके एक होनेपर भी स्वभाव सङ्कर्य नहीं होगा, क्योंकि उनमें एकत्व सर्वथा नहीं है, किन्तु कथंचित् है। इसलिए सब पदार्थों में न तो सर्वथा अभेद है, और न सर्वथा भेद है, किन्तु कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है। ___ अनेकान्त शासनमें सब व्यवस्था विवक्षा और अविवक्षासे की जाती है, किन्तु विवक्षा और अविवक्षाका कोई वास्तविक विषय नहीं है, ऐसा कहने वालेके प्रति आचार्य कहते हैं
विवक्षा चाविवक्षा च विशेष्येऽनन्तधर्मिणि ।
सतो विशेषणस्यात्र नासतस्तैस्तदर्थिभिः ॥३५।। विवक्षा और अविवक्षा करने वाले व्यक्ति अनन्त धर्मवाली वस्तु में विद्यमान विशेषण की ही विवक्षा और अविवक्षा करते हैं, अविद्यमान की नहीं। ___ यह पहले बतलाया जा चुका है कि प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म पाये जाते हैं । उन अनन्त धर्मों में से जब किसी एक धर्म की विवक्षा होती है उस समय अन्य समस्त धर्मों की अविवक्षा रहती है। विवक्षित धर्म प्रधान और अविवक्षित धर्म गौण हो जाते हैं। विवक्षा और अविवक्षा विद्यमान धर्मों की ही होती है, अविद्यमान धर्मों की नहीं। क्योंकि अविद्यमान धर्मों की विवक्षा और अविवक्षा से कोई लाभ नहीं है । खरविषाण की विवक्षा और गगनकुसुम की अविवक्षा से किसी अर्थ की सिद्धि नहीं होती है। ऐसा संभव है कि किसी की विवक्षा का विषय असत् हो, जैसे कि मनोराज्य असत् है। किन्तु एक विवक्षा के विषय को असत् होने से सब विषयोंको असत् नहीं माना जा सकता। अन्यथा केशोण्डुक विषयक एक प्रत्यक्ष के मिथ्या होने पर सब प्रत्यक्ष मिथ्या हो जाँयगे। यहाँ शब्दाद्वैतवादी का कहना है कि सब धर्मों के वाच्य होने से अविवक्षा का कुछ भी विषय नहीं है। उक्त कथन ठीक नहीं है। घट शब्द के उच्चारण करने के समय घट शब्द की ही विवक्षा होती है, और अन्य शब्दों की अविवक्षा रहती है। इसलिए विवक्षा और अविवक्षा विद्यमान धर्मों की ही होती है, अविद्यमान की नहीं। अविद्यमान धर्मों की विवक्षा और अविवक्षा केवल उपचार से ही की जा सकती है। जैसे कि उपचार से बालक को अग्नि कह दिया जाता है। बालक को अग्नि
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