________________
कारिका-४१] तत्त्वदीपिका
२०३ अनेक स्वभावोंका मानना अनुचित नहीं है। क्षणिक पदार्थमें भी अनेक स्वभाव पाये जाते हैं। अन्यथा वह अनेक कार्योंको करने में समर्थ कैसे होता। एक ही दीपक वर्तिकादाह, तैलशोषण, कज्जलमोचन, तमोनिरसन आदि अनेक कार्य करता है। इन अनेक कार्योंका करना अनेक स्वभावोंसे ही हो सकता है। घटमें जो रूपज्ञान, रसज्ञान आदि नानाप्रकारका ज्ञान देखा जाता है, वह अनेक स्वभावोंके कारण ही होता है। इस प्रकार अनेक स्वभावोंका सद्भाव नित्य पदार्थमें ही नहीं पाया जाता है, किन्तु क्षणिकमें भी पाया जाता है। प्रत्येक पदार्थमें अनेक शक्तियाँ रहती हैं, और उन शक्तियोंके कारण उसके नाना कार्य देखे जाते हैं।
बौद्धोंका कहना है कि शक्तियोंका सद्भाव सिद्ध नहीं होता है। क्योकि शक्तियाँ शक्तिमानसे भिन्न हैं या अभिन्न । यदि भिन्न हैं, तो 'ये उसकी शक्तियाँ हैं' यह कैसे कहा जा सकता है। और अभिन्न पक्षमें या तो शक्तियाँ ही रहेंगी या शक्तिमान् ही। इत्यादि विकल्पोंके कारण शक्तियोंका सद्भाव सिद्ध नहीं होता है ।
उक्त प्रकारसे शक्तियोंका अभाव सिद्ध करना ठीक नहीं है। इस प्रकार तो घटादि पदार्थोंमें रूपादि गुणोंका भी अभाव सिद्ध किया जा सकता है । घटसे रूपादि भिन्न हैं या अभिन्न, इत्यादि विकल्पों द्वारा रूपादिका भी अभाव हो जायगा । यद्यपि प्रत्यक्षसे शक्तियाँ नहीं दिखती हैं, किन्तु अनुमानसे शक्तियोंका सद्भाव सिद्ध होता है। यदि अनुमानसिद्ध बातको न माना जाय तो पदार्थों में क्षणिकत्वकी सिद्धि, दान आदिमें स्वर्गप्रापण शक्ति आदिकी सिद्धि कैसे होगी। एक स्वभावके होने पर भी सामग्रीके भेदसे नाना कार्योंकी उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है । अन्यथा घटमें रूपादि गुणोंके न होने पर भी चक्षुरादि सामग्रीके भेदसे रूपादिका ज्ञान मानना होगा । बौद्ध घटमें रूपादि ज्ञानके भेदसे रूपादि गुणोंको तो मानते हैं, किन्तु दीपकमें अनेक कार्योंके देखे जाने पर भी अनेक स्वभावोंको नहीं मानना चाहते हैं। यदि दीपक आदिका स्वभाव सर्वथा एक है, तो घटादिका स्वभाव भी सर्वथा एक मानना चाहिए। उनमें घटसे भिन्न रूपादि के माननेसे क्या लाभ है। यदि क्षणिक पक्षमें एक कारण स्वभावभेदके विना भी एक समयमें अनेक कार्य करता है, तो नित्य पदार्थको भी सहकारी कारणोंकी सहायतासे क्रमसे कार्य करने में कौनसी बाधा है। सहकारी कारणों द्वारा जिस प्रकार क्षणिक पदार्थमें स्वभावभेद नहीं होता है, उसी प्रकार नित्य पदार्थ में भी स्वभावभेद
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org