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कारिका-५९]
तत्त्वदीपिका क्रम युक्त नहीं है। प्रत्यक्षद्वारा मुद्गरके आघातसे ही घटका विनाश और कपालकी उत्पत्ति देखी जाती है। यदि मुद्गरके आघातसे घटके अवयवोंमें केवल क्रिया ही होती है, तो उस क्रियाको ही दोनों (घटका विनाश और कपालकी उत्पत्ति) का कारण मान लीजिए। क्रियासे अवयवोंमें विभाग ही होता है, तो अवयव विभागको ही दोनोंका कारण मान लेना चाहिए। और यदि अवयव विभागसे संयोगनाश ही होता है, तो संयोग नाशको ही दोनोंका कारण मानने में कौनसी बाधा है। क्योंकि महास्कन्धके अवयवोंके संयोगनाशसे भी लघुस्कन्धकी उत्पत्ति देखी जाती है।
नैयायिक-वैशेषिकोंका एक मत यह भी है कि अल्पपरिमाणवाले कारणसे ही महत्परिमाणवाले कार्यकी उत्पत्ति होती है, और महत्परिमाणवाले कारणसे अल्पपरिमाणवाले कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती है। अतः घटके नाशसे सीधे कपालोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। यह मत भी समीचीन नहीं है। क्योंकि समानपरिमाणवाले कारणसे और महत्परिमाणवाले कारणसे भी कार्यकी उत्पत्ति होती है । तन्तुओंसे जो पटकी उत्पत्ति होती है वह आतान, वितान आदि रूपसे पटाकार परिणत तन्तुओंसे ही पटकी उत्पत्ति होती है। अतः पटका कारण पटसे अल्पपरिमाणवाला न होकर समानपरिमाणवाला ही है। महापरिमाणवाले शिथिल कार्यासपिण्डसे अल्प परिमाण वाले निबिड कापसि पिण्डकी उत्पत्ति भी देखी जाती है।
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि पदार्थका उत्पाद और विनाश दोनों एक हेतुसे ही होते हैं, और महापरिमाणवाले कारणसे भी कार्यकी उत्पत्ति होती है । तथा इस विषयमें किसी प्रमाणसे बाधा नहीं आती है।
वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप है। इस बातको दृष्टान्तपूर्वक स्पष्ट करनेके लिए आचार्य कहते हैं
घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् ।
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।।५९।। सुवर्गके घटका, सुवर्णके मुकुटका और केवल सुवर्णका इच्छुक मनुष्य क्रमशः सुवर्ण-घटका नाश होने पर शोकको, सुवर्ण-मुकुटके उत्पन्न होने पर हर्षको, और दोनों ही अवस्थाओंमें सुवर्णकी स्थिति होनेसे माध्यस्थ्यभावको प्राप्त होता है । और यह सब सहेतुक होता है।
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनोंकी प्रतीति भिन्न-भिन्न रूपसे होती है, इस बातको लोकमें प्रसिद्ध दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है । एक मनुष्य
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