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कारिका-६८] तत्त्वदीपिका पृथक्-पृथक् रहते हैं, उसी प्रकार संयोग अवस्थामें भी पृथक्-पृथक् रहेंगे। उनमें अवस्थान्तरपरिणमनरूप परिवर्तन भी नहीं हो सकेगा, क्योंकि यदि उनमें परिवर्तन होता है, तो उनका अनित्य होना दुनिवार है। परमाणुओंमें किसी प्रकारके अतिशयके अभावमें पृथिवी आदि चार भूतोंकी उत्पत्ति भी नहीं हो सकेगी। और ऐसा होनेपर स्कन्धरूप पृथिवी आदि चार भूतोंको भ्रान्त ही मानना पड़ेगा। किन्तु पृथिवी आदि चार भूतोंको भ्रान्त मानना प्रतीतिविरुद्ध है। देखा जाता है कि परमाणुओंके संयोगसे स्कन्धरूप अवयवीकी उत्पत्ति होती है, और उसीके द्वारा अर्थक्रिया होती है। परमाणुओंके समदायसे रस्सी, घट आदि स्कन्धोंकी उत्पत्ति होती है। रस्सीकी सहायतासे कूपमेंसे पानी निकाला जाता है और घटमें पानी भरा जाता है। यदि रस्सी और घटके परमाणु पृथकपृथक् हों तो, न तो रस्सीकी सहायतासे पानी निकाला जा सकता है और न घटमें पानी भरा जा सकता है। अतः यह मानना आवश्यक है कि संयोग अवस्थामें परमाणुओंमें एक अतिशय उत्पन्न होता है जिसके कारण परमाणु अपने परमाणुरूप पूर्व स्वभावको छोड़कर स्कन्धरूप परिणमन करते हैं, और वह स्कन्ध अर्थक्रिया करनेमें समर्थ होता है। यदि संहत परमाणु अपने परमाणुरूपको नहीं छोड़ते हैं तो उनमें अतिशय माननेपर भी उनके द्वारा अर्थक्रिया संभव नहीं हो सकती है। पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन चार स्कन्धात्मक भूतोंकी सत्ता सबने स्वीकारकी है। यदि परमाणु अपनी संयोग अवस्थामें विभक्त ही रहते हैं, तो चार भूतोंका मानना भ्रमके अतिरिक्त और क्या हो सकता है। पथिवी आदि भूतोंको भ्रान्त मानने में प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विरोध स्पष्ट है । प्रत्यक्षके द्वारा बाह्यमें वर्ण, संस्थान आदि रूप स्कन्धोंकी तथा अन्तरङ्गमें हर्ष, विषाद आदिरूप आत्माकी प्रतीति सबको सिद्ध है। अतः कार्यके भ्रान्त होनेपर कारणका भ्रान्त होना स्वाभाविक ही है। और जब परमाणुओंसे उत्पन्न होनेवाले चार भूतरूप स्कन्ध भ्रान्त हैं, तो परमाणुओंका भ्रान्त होना भी अनिवार्य है। इसी बातको स्पष्ट करनेके लिए आचार्य कहते हैं
कार्यभ्रान्तरणुभ्रान्तिः कार्यलिङ्ग हि कारणम् ।
उभयाभावतस्तस्थं गुणजातीतरच्च न ॥८॥ कार्यके भ्रान्त होनेसे अणु भी भ्रान्त होंगे। क्योंकि कार्यके द्वारा कारणका ज्ञान किया जाता है। तथा कार्य और कारण दोनोंके अभावमें
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