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२५० आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-५ उनको सर्वथा आपेक्षिक मानने पर वे गगनकुसुमकी तरह प्रतिनियत बद्धि के विषय नहीं हो सकते हैं। वैशेषिकका उक्त मत असंगत है। क्योंकि धर्म-धर्मी आदिकी सत्ता सर्वथा निरपेक्ष मानने में अनेक दोष आते हैं। यदि धर्म धर्मीसे सर्वथा निरपेक्ष हो, तो उसमें धर्म व्यवहार ही नहीं हो सकता है। उसको धर्म तभी कहते हैं, जब वह किसी धर्मीका धर्म होता है। इसी प्रकार धर्मीको भी धर्मसे सर्वथा निरपेक्ष होने पर वह धर्मी नहीं कहा जा सकता है। कोई धर्मी तभी होता है, जब उसमें किसी धर्मका सद्भाव हो । सामान्य और विशेषकी सिद्धि सर्वथा निरपेक्ष मानने पर न सामान्य सिद्ध हो सकता है, और न विशेष । अन्वय अथवा अभेदको सामान्य कहते हैं, और व्यतिरेक अथवा भेदको विशेष कहते हैं। भेदनिरपेक्ष अभेद अन्वयबुद्धिका विषय नहीं होता है, और अभेद निरपेक्ष भेद व्यतिरेकबुद्धिका विषय नहीं होता है। सामान्यरहित विशेष और विशेषरहित सामान्य दोनों खरविषाणके समान असत् हैं। इसी प्रकार कार्य-कारण, गुण-गणी आदिकी सत्ता भी यदि सर्वथा निरपेक्ष मानी जायगी तो, ऐसा मानने पर सबके अभावका प्रसंग उपस्थित होता है । कारणनिरपेक्ष कार्य और कार्यनिरपेक्ष कारण, गुणीनिरपेक्ष गुण और गुणनिरपेक्ष गुणी आदिकी कल्पना कैसे की जा सकती है। अतः धर्म, धर्मी आदिकी सत्ता सर्वथा आपेक्षिक अथवा सर्वथा अनापेक्षिक मानना किसी भी प्रकार उचित नहीं है । . उभयकान्त तथा अवाच्यतैकान्तमें दूषण बतलानेके लिये आचार्य कहते हैं
विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् ।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥७४।। स्याद्वादन्यायसे द्वेष रखनेवालोंके यहाँ विरोध आनेके कारण उभयैकात्म्य नहीं बन सकता है। और अवाच्यतैकान्तपक्षमें भी 'अवाच्य' शब्दका प्रयोग नहीं किया जा सकता है । - धर्म-धर्मी आदिकी सत्ता सर्वथा सापेक्ष है, यह एक एकान्त है। उनकी सत्ता सर्वथा निरपेक्ष है, यह दूसरा एकान्त है। ये दोनों एकान्त एक साथ नहीं माने जा सकते। क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध है । यदि धर्म-धर्मीकी सत्ता सर्वथा सापेक्ष है, तो उसे निरपेक्ष नहीं माना जा
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