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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-३ सुवर्णके घटको चाहता है, दूसरा मनुष्य सुवर्णके मुकुटको चाहता है और तीसरा मनुष्य केवल सुवर्णको चाहता है। स्वर्णकारने सुवर्ण-घटको तोड़ कर मुकुट बनाया। उस समय सुवर्ण-घटके नष्ट हो जाने पर सुवर्णघटके चाहने वाले पुरुषको शोक होता है। शोकका कारण है वस्तुका नाश । तोड़ गये घटके सुवर्णका मुकुट बन जाने पर मुकुटके चाहने वाले पुरुषकोहर्ष होता है। हर्षका कारण है वस्तुका उत्पाद। और केवल सुवर्णके चाहने वाले पुरुषको घटके नष्ट हो जाने पर न तो शोक होता है, और न मुकुटके उत्पन्न होने पर हर्ष होता है, वह तो दोनों अवस्थाओंमें मध्यस्थ रहता है। मध्यस्थ रहनेका कारण है वस्तुका ध्रौव्यत्व । यदि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पृथक्-पृथक् न होते तो वही सोना एक पुरुषको शोकका कारण, दूसरे पुरुषको हर्षका कारण, और तीसरे पुरुषको माध्यस्थ्यभावका कारण कैसे होता । हर्ष, विषाद आदि निर्हेतुक नहीं हो सकते हैं, उनका कोई न कोई हेतु तो होना ही चाहिये । अतः घट पर्यायका विनाश शोकका हेतु है, मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति हर्षका हेतु है, और सुवर्णद्रव्यका ध्रौव्यत्व माध्यस्थ्यभावका हेतु है। जो सूवर्णमात्रको चाहता है उसको घटके टूटने और मुकुटके उत्पन्न होनेसे कोई प्रयोजन नहीं है । घटके बने रहने पर उसका काम चल सकता है, मुकुटके बने रहने पर भी उसका काम चल सकता है, और घटके टूट जानेके बाद मुकूटके बन जाने पर भी उसका काम चल सकता है । इस प्रकार वस्तुमें निर्वाधरूपसे उत्पाद आदि तीनकी प्रतीति होती है। और वह प्रतीति वस्तुको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप सिद्ध करती है।
पूर्वोक्त बातको लोकोत्तर दृष्टान्त द्वारा सिद्ध करनेके लिए आचार्य कहते हैं
पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोत्ति दधिव्रतः ।
अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥६०॥ जिसके दूध खानेका व्रत है वह दधि नहीं खाता है, जिसके दधि खानेका व्रत है वह दूध नहीं खाता है, और जिसके गोरस नहीं खानेका व्रत है वह दोनों नहीं खाता है । इसलिए तत्त्व तीन रूप है।
दूध पर्यायका नाश होने पर दधिकी उत्पत्ति होती है। किन्तु गोरसका सद्भाव दोनों अवस्था में बना रहता है । किसीने यह व्रत लिया कि मैं आज दुग्ध ही खाऊँगा, तो वह उस दिन दधि नहीं खाता है। यदि दधि के उत्पन्न होने पर भी उसमें दुग्धका सद्भाव रहता तो उसको दधि भी
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