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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-४ वैशेषिकका कहना है कि सत्तासामान्य द्रव्यादिक पदार्थों में पूर्णरूपसे रहता है, क्योंकि सबमें समानरूपते सत् प्रत्यय होता है और उस प्रत्ययका कभी विच्छेद भी नहीं होता है। समवाय भी अपने नित्य समवायियोंमें सदा पूर्ण रूपसे रहता है। अनित्य जो समवायी हैं, उनमें भी उत्पन्न होने वालोंमें सत्ताका समवाय हो जाता है। उत्पत्ति और सत्तासमवायका एक ही काल है। सत्ता और समवायका न पहले असत्त्व था, न कहींसे उनका आगमन होता है, और न बादमें, उनकी उत्पत्ति होती है। अतः सामान्य और समवायके विषयमें पूर्वोक्त दूषण ठीक नहीं है।
उक्त कथन निर्दोष नहीं है। क्योंकि व्यापक होने पर भी एक सामान्य और समवायका अपने प्रत्येक आश्रयमें पूराका पूरा रहना संभव नहीं है । यदि वे अपने प्रत्येक आश्रयमें पूरेके पूरे रहते हैं, तो नियमसे उनको अनेक मानना होगा। ऐसी बात नहीं है कि सत्ता और समवायका कहीं विच्छेद न पाया जाता हो। क्योंकि प्रागभाव आदि अभावोंमें सत्ता और समवायके न रहनेसे उनका विच्छेद होता ही है। यह कहना भी ठीक नहीं है कि सर्वत्र सत्प्रत्यय समानरूपसे होता है, इसलिए सत्तासामान्य एक है। क्योंकि प्रागभाव आदि अभावोंमें भी तो अभावप्रत्यय समानरूपसे होता है। इसलिए सत्ताकी तरह अभावको भी एक ही मानना पड़ेगा। और अभावको एक माननेसे एक कार्यकी उत्पत्ति होनेपर सब कार्योंके प्रागभावका अभाव हो जायगा। और प्रागभावके न रहनेसे सब कार्योंकी उत्पत्ति एक साथ हो जायगी। प्रध्वंस आदि अभावोंके अभावमें सब कार्य अनन्त, सर्वात्मक आदिरूप हो जायेंगे । इस प्रकार अभावके एक माननेमें जो दूषण दिये जाते हैं, वे दूषण भावके एक माननेमें भी दिये जा सकते हैं । सत्ताके एक माननेपर उत्पन्न होनेवाले एक पदार्थके साथ सत्ताका संबंध होनेसे अनुत्पन्न सब पदार्थों के साथ भी सत्ताका सम्बन्ध हो जायगा। और नष्ट होने वाले एक पदार्थके साथ सत्ताके सम्बन्धका विच्छेद होने पर विद्यमान सब पदार्थोंके साथ भी सत्ताके सम्बन्धका विच्छेद हो जायगा ।
इसलिए अभावकी तरह सत्ता और समवाय भी अनेक ही हैं। किन्तु सत्ता और समवाय सर्वथा अनेक नहीं हैं, वे कथंचित् एक भी हैं। विशेषकी अपेक्षासे सत्ता और समवायके अनेक होनेपर भी सामान्यकी अपेक्षासे वे एक हैं। सत्तासामान्य और सत्ताविशेष, समवायसामान्य और समवायविशेषका सद्भाव मानना आवश्यक है। सब पदार्थों में सत्ताकी समानरूपसे प्रतीतिका जो कारण है, वही सत्तासामान्य है। घटकी
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