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कारिका-६५ ] तत्त्वदीपिका
२३७ सामान्य और समयवाय अपने अपने आश्रयोंमें पूर्णरूपसे रहते हैं। और आश्रयके विना उनका सद्भाव नहीं हो सकता है । तब नष्ट और उत्पन्न होनेवाले पदार्थोंमें उनके रहनेकी व्यवस्था कैसे बन सकती है।
इस कारिकामें सामान्य और समवायका एक साथ और एक ही आधारसे खण्डन किया गया है। वैशेषिक मानते हैं कि सामान्य एक, नित्य और व्यापक है । गोत्व आदि प्रत्येक सामान्य एक है, अनेक नहीं। सामान्य कभी उत्पन्न या नष्ट नहीं होता है, व्यक्ति ही उत्पन्न और नष्ट होते हैं । गोत्व सामान्य एक होकर भी सब गायोंमें पूराका पूरा रहता है, इसलिए सामान्य व्यापक है । सामान्यकी तरह समवाय भी एक, नित्य और व्यापक है। सामान्य और समवाय अपने आश्रयोंके आश्रित रहते हैं।
जब सामान्य और समवाय आश्रित हैं, और अपने अपने आश्रर्यों में पूर्णरूपसे रहते हैं, तो इससे यह अर्थ निकलता है कि आश्रयके अभावमें सामान्य और समवाय नहीं रह सकते हैं। तब उत्पन्न होनेवाले पदार्थोंमें सामान्य और समवायके रहनेकी व्यवस्था कैसे होगी। एक स्थानमें किसी पदार्थके उत्पन्न होने पर उसके साथ सामान्य और समवायका सम्बन्ध कैसे होगा। यदि यह कहा जाय कि सामान्य और समवाय वहाँ पहलेसे थे, तो ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि आश्रयके विना वहाँ सामान्य और समवायका सद्भाव सम्भव नहीं है। यह भी संभव नहीं है कि वे अन्य व्यक्तिसे पूर्णरूपमें या अंश रूपमें यहाँ आते हैं। क्योंकि पूर्णरूपसे आनेमें पूर्वाधारका अभाव हो जायगा और एक देशसे आनेमें अंश सहित होनेका प्रसंग आयगा। ऐसा संभव नहीं है कि सामान्य और समवायका एक अंश पूर्व पदार्थमें रहे, और एक अंश उत्पन्न होनेवाले पदार्थमें रहे, क्योंकि वे दोनों निरंश हैं। पदार्थके उत्पन्न होने पर वहाँ सामान्य और समवाय उत्पन्न नहीं हो सकते हैं, क्योंकि वे दोनों नित्य हैं। इसी प्रकार जो पदार्थ नष्ट हो गया उसके सामान्य और समवाय कहाँ रहेंगे। किसी पदार्थके नष्ट हो जाने पर उसके सामान्य और समवाय निराश्रित हो जाँयगे । किन्तु वे निराश्रित नहीं रह सकते हैं। ऐसा मानना वैशेषिकको भी इष्ट नहीं है। एक गायके उत्पन्न होने पर वहाँ गोत्व सामान्य स्वयं हो जाता है, क्योंकि वह अपना प्रत्यय कराता है । गायके मर जाने पर गोत्वका नाश नहीं होता है, क्योंकि वह नित्य है । तथा सब गायों गोत्व पूराका पूरा रहता है। यह सब कथन परस्पर विरुद्ध है ।
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