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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद- ३
नहीं होगा । यह कहना भी ठीक नहीं है कि सहकारी कारण ही कार्यको कर लेंगे, नित्यको माननेकी क्या आवश्यकता है । क्यों कि यह प्रश्न तो क्षणिक पक्ष में भी समान रूपसे पूँछा जा सकता है । क्षणिक पक्षमें भी तो सहकारी कारण कार्यकी उत्पत्ति में सहायता करते ही हैं । पृथिवी, जल आदिकी सहायता से बीजके द्वारा अंकुरकी उत्पत्ति होती है । यहाँ ऐसा भी कहा जा सकता है कि पृथिवी आदिसे ही अंकुरकी उत्पत्ति हो जायगी, बीजके माननेकी क्या आवश्यकता है । यदि क्षणिक पदार्थ सहकारी कारणोंके साथ कार्यको करता है, तो नित्य पदार्थको भी सहकारी कारणोंके साथ कार्य करने में कौनसी हानि है । तात्पर्य यह है कि नित्यकी तरह क्षणिक पदार्थ में भी शक्तियाँ या स्वभाव भेद पाये जाते हैं, जिनके कारण वह एक ही समय में अनेक कार्य करता है । यथार्थमें पदार्थ न तो सर्वथा क्षणिक है, और न नित्य ।
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का मत है कि प्रत्येक पदार्थ क्षण क्षणमें नष्ट होता रहता है, और वह विनाश किसी कारण से नहीं होता है, किन्तु निर्हेतुक है । पदार्थ स्वभावसे ही विनाशशील उत्पन्न होता है । वह अपने नाशके लिए किसी दूसरे पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखता है । जो जिस कार्य के लिए किसी दूसरे पदार्थ की अपेक्षा नहीं रखता है, वह उसका स्वभाव है । जैसे कि अन्तिम कारण सामग्रीका स्वभाव कार्यको उत्पन्न करनेका है । क्योंकि वह कार्य की उत्पत्ति में अन्य किसीकी अपेक्षा नहीं रखती है । घटका विनाश स्वभावसे ही होता है, मुद्गर आदि किसी अन्य कारणसे नहीं । यदि मुद्गरसे घटका विनाश होता है, तो वह विनाश घटसे भिन्न होता है, या अभिन्न होता है । यदि विनाश घटसे भिन्न होता है तो घटका क्या बिगड़ा, वह तो ज्यों का त्यों रक्खा रहेगा । और उस समय पूर्ववत् घटका दर्शन भी होना चाहिए । यदि विनाश घटसे अभिन्न होता है, तो विनाश होनेका अर्थ हुआ 'घटका होना' । और घटतो पहलेसे ही निष्पन्न है । तब उसके विनाशका होना व्यर्थ ही है । अतः पदार्थोंका विनाश स्वभावसे ही होता है, किसी कारणसे नहीं ।
बौद्ध उक्त प्रकारसे पदार्थोंको विनाशशील सिद्ध करना युक्तिसंगत नहीं है । अनुभवसे यही प्रतीत होता है कि प्रत्येक पदार्थ कुछ काल तक स्थिर रहता है, और विनाशके कारण मिलने पर उसका नाश हो जाता है । जिस प्रकारसे बौद्ध पदार्थका विनाश सिद्ध करते हैं, उस प्रकारसे पदार्थका स्थिति स्वभाव भी तो सिद्ध किया जा सकता
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