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कारिका-४८ ]
तत्त्वदीपिका
भिलाप्य है । वस्तु ही प्रक्रियाके विपर्ययसे अवस्तु हो जाती है ।
इसमें सन्देह नहीं है कि जो सकल धर्मोसे रहित है, वह अवस्तु है । वह किसी प्रमाणसे जानी भी नहीं जा सकती है । और ऐसी अवस्तु ही सर्वथा अनभिलाप्य है । तथा जिसमें धर्म पाये जाते हैं वह वस्तु है, वह प्रमाणके द्वारा जानी भी जाती है, और अभिलाप्य भी होती है । ऊपर जो सर्व धर्मोसे रहितको अवस्तु कहा है, वह एकान्तवादकी अपेक्षासे ही कहा है । अनेकान्त शासनमें तो वस्तु ही प्रक्रिया के विपर्ययसे अवस्तु हो जाती है । सर्वथा अवस्तु कोई नहीं है । जो स्वद्रव्य क्षेत्र -काल- भावकी अपेक्षासे वस्तु है, वही परद्रव्य-क्षेत्र -काल- भावकी अपेक्षासे अवस्तु है । भाववाचक शब्दोंके द्वारा अभावका और अभाववाचक शब्दोंके द्वारा भावका प्रतिपादन होता है, यह पहले बतलाया ही जा चुका है । किसीने कहा'अब्राह्मणमानय' 'अब्राह्मणको लाओ' । इस वाक्यका अर्थ यह है कि ब्राह्मणके अतिरिक्त क्षत्रिय आदिको लाना है । अब्राह्मण शब्द अभाव वाचक होकर श्री क्षत्रिय आदि भावोंको कहता है । और किसीने कहा'ब्राह्मणमानय' ‘ब्राह्मणको लाओ'। इस वाक्यका तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण को ही लाना है, क्षत्रिय आदिको नहीं । यहाँ ब्राह्मण शब्द भाववाचक होकर भी क्षत्रिय आदिका निषेध करता है ।
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अतः यह कहना ठीक ही है कि जो अवस्तु है, वह अनभिलाप्य है, जैसे शून्यता । और जो अभिलाप्य है वह वस्तु है, जैसे आकाशपुष्पका अभाव । आकाशपुष्पाभावका कथन किया जाता है, अतः आकाशपुष्पाभाव सर्वथा अवस्तु न होकर वस्तु है । आकाशमें जो पुष्पका अभाव है, वह आकाशस्वरूप होने से वस्तु है । पुष्परहित आकाशका नाम ही आकाशपुष्पाभाव है । प्रत्येक पदार्थ स्वभावकी अपेक्षासे भावरूप और परभावकी अपेक्षासे अभावरूप होता है । एक द्रव्यमें एकत्व संख्याका व्यवहार होता है, वही द्रव्य जब दूसरी द्रव्यके साथ मिल जाती है, तो उसीमें द्वित्व संख्याका व्यवहार होने लगता है । अपेक्षाभेदसे अनेकान्त शासन में सर्व प्रकार की व्यवस्था बन जाती है । जो वस्तुको सर्व धर्मोसे रहित मानते हैं उनके मत में उसमें वस्तुत्व ही सिद्ध नहीं हो सकता है । और तत्त्व सर्वथा अवस्तु होने से वह सर्वथा अनभिलाप्य भी होता है । इस प्रकार एकान्त मतमें किसी भी तत्त्वकी व्यवस्था नहीं बनती है ।
अवक्तव्यवादियों को अन्य दूषण दे हुए
आचार्य कहते हैं—
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