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कारिका - ४०-४१ ]
तत्त्वदीपिका
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प्रधानमें तिरोभाव हो जाता है । तथा तिरोभाव हो जाने पर भी उनके विनाशका प्रतिषेध होने से उनका अस्तित्व बना रहता है । सांख्यका उक्त कथन अनेकान्तका ही कथन है । और वह 'अन्धसर्पबिलप्रवेशन्याय' का ही अनुसरण कर रहा है ।
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नित्यत्वैकान्त में पुण्य-पाप बन्ध-मोक्ष आदि कुछ भी संभव नहीं है । इस बात को बतलाने के लिए आचार्य कहते हैं
पुण्यपापक्रिया न स्यात् प्रेत्यभावः फलं कुतः । बन्धमोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः ||४०||
हे भगवन् ! जिनके आप नायक नहीं हैं, उन नित्यत्वैकान्तवादियोंके मत में पुण्य-पापकी क्रिया, परलोक गमन, सुखादिफल, बन्ध और मोक्ष ये सब नहीं बन सकते हैं
नित्यत्वैकान्तवादियों के यहाँ पुण्य और पापकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। इस जन्मसे दूसरे जन्ममें गमन भी नहीं हो सकता है । सुख, दुख आदि फलका अनुभव भी नहीं हो सकता है । इसी प्रकार बन्ध और मोक्ष भी संभव नहीं हैं । तात्पर्य यह है कि नित्यत्वैकान्तमें विक्रियाके अभाव में कुछ भी संभव नहीं है । जब पदार्थ सर्वदा जैसाका तैसा रहेगा, उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं होगा, तो पुण्य-पाप आदिकी उत्पत्ति कैसे संभव हो सकती है । इसलिए नित्यत्वैकान्त पक्ष पुण्य, पाप, प्रेत्यभाव, बन्ध, मोक्ष आदिसे रहित होनेके कारण बुद्धिमानोंके द्वारा सर्वथा त्याज्य है । ऐसी बात नहीं है कि नित्यत्वैकान्त में ही पुण्य, पाप आदि नहीं बनते हैं, किन्तु किसी भी एकान्त में पुण्य पाप आदि संभव नहीं हैं । इसी बात को 'न कुशलाकुशलं कर्म' इस कारिकामें विस्तारपूर्वक बतलाया गया है ।
क्षणिकान्तमें दोष बतलाते हुए आचार्य कहते हैं
प्रेत्यभावाद्यसंभवः ।
क्षणिकैकान्तपक्षेsपि प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारंभः कुतः फलम् ॥ ४१ ॥
क्षणिकान्त पक्षमें भी प्रेत्यभाव आदि संभव नहीं हैं । प्रत्यभिज्ञान
आदिका अभाव होनेसे कार्यका आरम्भ भी संभव नहीं है । और कार्यके अभावमें उसका फल कैसे संभव हो सकता है ।
क्षणिकैकान्त पक्षमें नित्य आत्माके अभाव में प्रत्यभिज्ञान, स्मृति,
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