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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-२ कह देने से वह अग्नि का कार्य जलाना आदि नहीं कर सकता है। इसी प्रकार अविद्यमान धर्मों को विवक्षा और अविवक्षा से कोई अर्थक्रिया नहीं हो सकती है।
भेद और अभेद दोनों परमार्थ सत् हैं, इस बात को बतलाने के लिए आचार्य कहते हैं--
प्रमाणगोचरौ सन्तौ भेदाभेदौ न संवृती ।
तावेकत्राविरुद्धौ ते गुणमुख्यविवक्षया ॥३६॥ हे भगवन् । आपके मत में भेद और अभेद प्रमाण के विषय होने से वास्तविक हैं, काल्पनिक नहीं। गौण और प्रधान की विवक्षा से एक ही वस्तु में उन दोनों के होने में कोई विरोध नहीं है। __ कुछ लोग वस्तु में अभेद को मिथ्या मानते हैं, दूसरे लोग भेद को मिथ्या मानते हैं, अन्य लोग भेद और अभेद दोनों को ही मिथ्या मानते हैं । इन सब का निराकरण केवल एक ही हेतु से हो जाता है, जो इस प्रकार है-वस्तु में अभेद सत् है, प्रमाण का विषय होने से, भेद भी सत है, प्रमाण का विषय होने से, भेद और अभेद दोनों सत् हैं, प्रमाण के विषय होने से। सब के स्वेष्ट तत्त्वों की सिद्धि प्रमाण के द्वारा ही होती है । प्रमाण से जिस अथं की जैसी प्रतीति होती है, वह अर्थ वैसा ही माना जाता है । यदि प्रमाण के द्वारा की गयी तत्त्व व्यवस्था ठीक न हो, तो फिर इष्ट तत्त्व की सिद्धि का कोई उपाय ही शेष नहीं रहता है। अविसंवादी ज्ञान का नाम प्रमाण है। जो वस्तु जैसी हो उसको उसीरूप में जानना अविसंवाद है। प्रमाण न तो केवल भेद को विषय करता है,
और न केवल अभेद को। वह परस्परनिरपेक्ष दोनों को भी विषय नहीं करता है । एकान्तवादियों के द्वारा माने गये सर्वथा भेदरूप अथवा सर्वथा अभेदरूप तत्त्व को उपलब्धि नहीं होती है। जिसका जैसा आकार है, उसकी उपलब्धि उसीरूप से होती है। स्थूल आकार की स्थलरूप से और रूक्ष्म आकार की रूक्ष्मरूप से ही उपलब्धि होती है। ऐसा नहीं हो सकता कि स्थूल पदार्थकी सूक्ष्मरूपसे उपलब्धि होने लगे और सूक्ष्मपदार्थकी स्थूलरूपसे उपलब्धि होने लगे। प्रत्यक्षके द्वारा परमाणुओंका कभी प्रतिभास नहीं होता है। अतः तत्त्व या पदार्थको परमाणुरूप मानना ठीक नहीं है । ऐसा मानना भी ठीक नहीं है कि संवृति के कारण सूक्ष्म परमाणुओंका स्थूलरूपसे प्रतिभास होता है । यथार्थमें अनेक परमा
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