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तृतीय परिच्छेद
नित्यत्वैकान्तका खण्डन करनेके लिए आचार्य कहते हैंनित्यत्वैकान्तपक्षेsपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाभावः क्व प्रमाणं क्व तत्फलम् ||३७||
नित्यत्वैकान्त पक्ष में भी विक्रिया उत्पन्न नहीं हो सकती है । जब पहले ही कारकका अभाव है तब प्रमाण और प्रमाणका फल ये दोनों कहाँ बन सकते हैं ।
सांख्य मतके अनुसार सब पदार्थ कूटस्थ नित्य हैं । जो तीनों कालों में एकरूपसे रहता है, उसे कूटस्थ नित्य कहते हैं । पर्यायदृष्टि से भी किसी भी पदार्थकी उत्पत्ति और विनाश नहीं होता है, केवल आविर्भाव और तिरोभाव होता है । घटादि पदार्थ अपने कारणोंमें छिपे रहते हैं, यही उनका तिरोभाव है, और अनुकूल कारणोंके मिलने पर उनका प्रकट हो जाना आविर्भाव कहलाता है । घटकी न तो उत्पत्ति होती है, और न नाश होता है । किन्तु आविर्भाव और तिरोभाव होता है । अन्धेरेमें तिरोभाव हो जानेके कारण घट नहीं दिखता है, और प्रकाशमें आविर्भाव हो जाने के कारण दिखने लगता है । घट तो ज्योंका त्यों रहा । यही बात घटादिकी उत्पत्ति और नाशके विषयमें जानना चाहिये ।
सांख्यका उक्त मत किसी भी प्रकार समीचीन नहीं है । तत्त्वको सर्वथा नित्य माननेपर उससे कोई भी क्रिया उत्पन्न नहीं हो सकती है । उससे न तो परिणमनरूप क्रिया उत्पन्न हो सकती है, और न परिस्पन्दरूप क्रिया । सर्वथा नित्य पदार्थ न तो कार्यकी उत्पत्तिके पहिले कारक है, और न कार्योत्पत्ति के समय भी कारक है । ऐसी स्थिति में उसके द्वारा कार्यकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है । जब पदार्थ अकारक है और विक्रियारहित है, तो प्रमाण और प्रमाणका फल भी नहीं बन सकता है । जो अकारक है वह प्रमाता नहीं हो सकता है, और प्रमाताके अभाव में प्रमितिरूप फल भी संभव नहीं है । जो पदार्थ न किसीकी उत्पत्ति करता है, और न परिच्छित्ति ही करता है, उसकी सत्ता असंभव है ।
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