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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद २
आता है । इसलिए अद्वैतमात्र तत्त्वकी सत्ताका सद्भाव किसी भी प्रकार संभव नहीं है ।
अद्वैतैकान्तमें अन्य दूषणोंको दिखलानेके लिए आचार्य कहते हैंकर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं च नो भवेत् ।
विद्याऽविद्याद्वयं न स्याद् बन्धमोक्षद्वयं तथा ||२५|| अद्वैत एकान्तमें शुभ और अशुभ कर्म, पुण्य और पाप, इहलोक और परलोक, ज्ञान और अज्ञान, बन्ध और मोक्ष, इनमें से एक भी द्वैत सिद्ध नहीं होता है ।
लोकमें दो प्रकारके कर्म देखे जाते हैं - शुभकर्म और अशुभकर्म । हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना आदि अशुभकर्म हैं। हिंसा नहीं करना, सत्य बोलना, चोरी नहीं करना, परोपकार करना, दान देना, आदि शुभकर्म हैं । दो प्रकारके कर्मोंका फल भी दो प्रकारका मिलता है - अच्छा और बुरा । जो शुभ कर्म करता है उसे अच्छा फल मिलता है । इसे पुण्य कहते हैं । और जो अशुभ कर्म करता है, उसको बुरा फल मिलता है । इसे पाप कहते हैं । अद्वैतमात्र तत्त्वके सद्भावमें दो कर्मोंका अस्तित्व कैसे हो सकता है । जब कर्म ही नहीं है, तो उसका फल भी नहीं हो सकता है । अतः दो कर्मोंके अभाव में दो प्रकारके फलका अभाव स्वतः हो जाता है । दो प्रकारके लोकको भी प्रायः सब मानते हैं । इहलोक तो सबको प्रत्यक्ष ही है । इस लोकके अतिरिक्त एक परलोक भी है, जहाँसे यह जीव इस लोक में आता है, और मृत्युके बाद पुन: वहाँ चला जाता है । परलोकका अर्थ है जन्मके पहले और मृत्युके बादका लोक । ऐसा भी माना गया है कि इस जन्ममें किये गये कर्मों का फल अगले जन्ममें मिलता है । किन्तु अद्वैतवाद न कर्म है, न कर्मफल है, और न परलोक है ।
यह कहना भी ठीक नहीं है कि कर्मद्वैत, फलद्वैत, लोकद्वैत आदिकी कल्पना अविद्या निमित्तसे होती है । क्योंकि विद्या और अविद्याका सद्भाव भी अद्वैतवादमें नहीं हो सकता है । यहाँ तक कि बन्ध और मोक्षकी भी व्यवस्था अद्वैतमें नहीं बन सकती है । यदि कोई व्यक्ति प्रमाणविरुद्ध किसी तत्त्वकी कल्पना करता है, तो किसी न किसी फलकी अपेक्षा से ही करता है । विना प्रयोजनके मूर्ख भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है । अतः कोई बुद्धिमान् व्यक्ति सुख-दुःख पुण्य-पाप बन्ध - मोक्ष आदिसे रहित अद्वैतवादका आश्रय कैसे ले सकता है । अतः ब्रह्माद्वैतकी सत्ता स्वबुद्धिकल्पित है ।
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