________________
१८२
आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-२ की सिद्धिका प्रसंग नहीं आ सकता है, क्योंकि स्व और परकी कल्पना अविद्याकृत है। अविद्या भी कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है, किन्तु अवस्तुभूत है। उसमें किसी प्रमाणका व्यापार नहीं होता है। वह प्रमाणागोचर है। अविद्यावान् मनुष्य भी अविद्याका निरूपण नहीं कर सकता है। जैसे कि जन्मसे तैमिरिक मनुष्य चन्द्रद्वयकी भ्रान्तिको नहीं बतला सकता है। इस अनिर्वचनीय अविद्याके द्वारा स्व-पर आदिके भेदकी प्रतीति होती है। यथार्थमें तो अद्वैत तत्त्व ब्रह्मका ही सद्भाव पाया जाता है।
वेदान्तवादियोंके उक्त कथनमें कुछ भी सार नहीं है। सर्वथा अनिवचनीय तथा प्रमाणागोचर अविद्याको मानकर उसके द्वारा वैतकी कल्पना करना उचित प्रतीत नहीं होता है। ऐसी बात नहीं है कि प्रमाण अविद्याको विषय न कर सकता हो । जिस प्रकार प्रमाण विद्याको विषय करता है उसी प्रकार अविद्याको भी विषय कर सकता है। विद्याकी तरह अविद्या भी वस्तु है, तथा प्रमाणका विषय है। अविद्या प्रमाणागोचर और अनिर्वचनीय नहीं हो सकती है। अत: अविद्याके द्वारा वैतकी कल्पना मानना ठीक नहीं है, उसके द्वारा तो द्वैतकी सिद्धि ही होती है।
इस प्रकार अद्वैतैकान्त पक्षकी सिद्धि किसी प्रमाणसे नहीं होती है । प्रत्युत युक्तिसे यही सिद्ध होता है कि अद्वैत द्वैतका अविनाभावी है । और बिना द्वैतके अद्वैतका सद्भाव किसी भी प्रकार नहीं हो सकता है।
जो लोग सब पदार्थोंको नितान्त पृथक् पृथक् मानते हैं, उनके पृथक्त्वैकान्तका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं
पृथक्त्वैकान्तपक्षेपि पृथक्त्वादपृथक् तु तौ । पृथक्त्वे न पृथक्त्वं स्यादनेकस्थो ह्यसौ गुणः ॥ २८ ॥ पृथक्त्वैकान्त पक्षमें द्रव्य, गुण आदि यदि पृथक्त्वगुणसे अपृथक् हैं तो स्वमतविरोध होता है। और यदि द्रव्य आदि पृथक्त्वगुणसे पृथक् हैं तो वह पृथक्त्व गुण ही नहीं हो सकता है, क्योंकि पृथक्त्व गुण अनेक पदार्थों में रहता है। ___ कुछ लोगोंका कहना है कि सब पदार्थं पृथक् पृथक् हैं। गुणीसे गुण पृथक् है, क्रियासे क्रियावान् पृथक् है, अवयवोंसे अवयवी पृथक् है, सामान्यसे सामान्यवान् पृथक है, और विशेषसे विशेषवान् पृथक है। ऐसा मत नैयायिक-वैशेषिकोंका है । बौद्ध मानते हैं कि सब परमाणु सजातीय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.