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१८४ आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-२ क्षणिकैकान्तका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं
संतानः समुदायश्च साधयं च निरंकुशः ।
प्रेत्यभावश्च तत्सर्वं न स्यादेकत्वनिह्नवे ।।२९।। एकत्वके अभावमें निर्बाध संतान, समुदाय, साधर्म्य और प्रेत्यभाव आदिका भी अभाव हो जायगा।
बौद्ध मानते हैं कि सब पदार्थ प्रतिक्षण विनाशशील हैं। कोई भी पदार्थ उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाता है। पदार्थका स्थितिकाल केवल एक क्षण है। वे पदार्थों में क्षणिकत्वकी सिद्धि अनुमान प्रमाणसे करते हैं। वह अनुमान इस प्रकार है---'सर्वं क्षणिक सत्त्वात' | 'सब पदार्थ क्षणिक हैं. सत होनेसे' । पदार्थोंको क्षणिक सिद्ध करने में उनकी यक्ति यह है कि नित्य पदार्थ न तो क्रमसे अर्थक्रिया कर सकता है और न युगपत् अर्थक्रिया कर सकता है। अर्थक्रियाके अभावमें सत्त्वका अभाव होना स्वाभाविक ही है। अतः सत्त्वका सद्भाव क्षणिक पदार्थमें ही हो सकता है, नित्यमें नहीं। पदार्थोके क्षणिक होने पर भी भ्रान्तिवश वे स्थिर मालूम पड़ते हैं। जिन प्रकार दीपककी लौ भिन्न-भिन्न होने पर भी सादृश्यके कारण एक ही मालूम पड़ती है, उसी प्रकार यद्यपि पदार्थ प्रतिक्षण नष्ट होते रहते हैं, किन्तु आगे-आगे उसीके सदृश पदार्थोंकी संतान उत्पन्न होती रहती है। उस सदृश संतानके कारण ही एकत्व या स्थिरत्वकी प्रतीति होती है। ___ बौद्ध एकत्वको न मानकर भी सन्तान, समुदाय, साधर्म्य और प्रेत्यभाव आदिको मानते हैं । उनके यहाँ सन्तान एक ऐसा साधन है, जिमके द्वारा सारे काम चल जाते हैं। आत्मा नामका कोई पदाथ नहीं है, केवल ज्ञानको सन्तानमें आत्माका व्यवहार होता है । ज्ञानको क्षणिक होनेपर भी ज्ञानकी सन्तान (धारा) चालू रहती है, उसी सन्तानके कारण स्मति आदि होती है। एक प्राणी कर्मोंका बन्ध करता है, किन्तु उसका फल उस प्राणीकी सन्तानको मिलता है, मुक्ति भी सन्तानकी ही होती है। एक प्राणी मरकर दूसरे लोकमें नहीं जाता है, केवल उसकी सन्तानदूसरे लोकमें जाती है। इसलिए सन्तानकी अपेक्षासे प्रेत्यभाव भी सिद्ध हो जाता है। सब परमाण पथक-पथक हैं, एक परमाणका दूसरे परमाणके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर भी बौद्ध उसमें समुदायको कल्पना करते हैं। एक पदार्थका दूसरे पदार्थके साथ साधर्म्य है, ऐसा भी वे मानते हैं।
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