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कारिका-३१-३२] तत्त्वदीपिका
१८९ करनेका कोई उपाय ही नहीं है। निर्विकल्प प्रत्यक्ष अर्थको विषय करता है, और सविकल्पक प्रत्यक्ष अनर्थ ( सामान्य ) को विषय करता है, इस बातका निर्णायक भी कोई नहीं है । क्योंकि निर्विकल्पक सविकल्पकको नहीं जानता है, और सविकल्पक निर्विकल्पकको नहीं जानता है । बौद्ध प्रत्यक्षको अनिश्चयात्मक मानते हैं । यद्यपि विकल्पज्ञान निश्चयात्मक है, किन्तु सामान्यको विषय करनेके कारण वह भ्रान्त है। इसलिए अर्थका निर्णयात्मक कोई ज्ञान न होने से यह जगत् अन्धे आदमीके समान हो जायगा। जिस प्रकार अन्धे आदमीको किसी वस्तुका चाक्षुष ज्ञान नहीं होता है, उसी प्रकार हम लोगोंको जगत्के किसी पदार्थका निश्चयात्मक ज्ञान नहीं होगा। और तब मीमांसकके परोक्षज्ञानवादसे बौद्धके अनिश्चयात्मक ज्ञानमें कोई विशेषता नहीं रहेगी। जैसे अप्रत्यक्ष ज्ञानसे अर्थका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है, वैसे ही अनिश्चयात्मक ज्ञानसे भी अर्थका निश्चय नहीं हो सकता है। यदि अनिर्णीत ज्ञानके द्वारा अर्थकी व्यवस्था होने लगे तो संसारमें कोई भी तत्त्व अव्यवस्थित नहीं रहेगा। और सबके इष्ट तत्त्वोंकी सिद्धि सरलतासे हो जायगी।
इसलिए शब्दका वाच्य केवल सामान्य नहीं है, किन्तु सामान्यविशेषात्मक पदार्थ शब्दका वाच्य है। न तो सामान्य अवास्तविक है, और न विशेषसे पथक है। सामान्य और विशेष दोनोंके तादात्म्यका नाम ही पदार्थ है। ऐसा पदार्थ शब्दका भी विषय होता है, और प्रत्यक्षादि ज्ञानोंका भी।
उभयैकान्त और अवाच्यतैकान्त में दूषण बतलाने के लिए आचार्य कहते हैं
विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् ।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥३२॥ स्वाद्वादन्याय से द्वष रखने वालों के यहाँ विरोध आने के कारण उभयैकात्म्य नहीं बन सकता है। और अवाच्यतैकान्त पक्ष में भी 'अवाच्य' शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
पहले सर्वथा अभेदैकान्त और सर्वथा भेदैकान्त का निराकरण किया गया है। कुछ लोग उभयैकान्त (भेदैकान्त और अभेदैकान्त) की निरपेक्ष सत्ता स्वीकार करते है। किन्तु एकान्तवाद में उभयैकान्त किसी भी प्रकार संभव नहीं है । पूर्णरूप से विरोधी दो धर्म एक वस्तु में नहीं रह
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