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कारिका-२९-३०] तत्त्वदीपिका
१८५ किन्तु जब उक्त बातों पर युक्ति पूर्वक विचार किया जाता है तो यही फलित होता है कि एकत्वके अभावमें उक्त बातोंमेंसे कोई भी बात सिद्ध नहीं हो सकती है। मूल ( जड़ ) के अभावमें जैसे वृक्षकी स्थिति नहीं हो सकता है वैसे हो एकत्वके अभावमें संतान आदि कुछ भी नहीं बन सकते हैं । बौद्ध कार्य और कारण क्षणोंको ही सन्तान कहते हैं। किन्तु जब कारणका निरन्वय विनाश होता है, और कारण कार्यकाल तक नहीं जाता है, तो कार्यकारणकी संतान कैसे बन सकती है। अन्वय रहित कार्य और कारणकी संतान नहीं होती है, किन्तु जिनमें अन्वयरूप अतिशय पाया जाता है, और जो पूर्वापरकालभावी हैं, ऐसे कार्य और कारणके सम्बन्धका नाम सन्तान है। जीवमें ज्ञान आदिकी सन्तान पारमार्थिक है, और इसके द्वारा स्मृति आदि व्यवहार होता है। एक जीव मरकर दूसरे लोकमें जाता है। अतः प्रेत्यभावके सद्भावमें जीवको एक मानना आवश्यक है। यदि जीव प्रतिक्षण बदलता रहता है, तो प्रेत्यभाव कदापि संभव नहीं है। यदि परमाणु भी सर्वथा क्षणिक और अन्य सजातीय-विजातीय परमाणुओंसे व्यावृत्त हैं, तो उनके समुदायको प्रतीति कैसे हो सकती है। समुदायकी प्रतीतिको मिथ्या मानना ठीक नहीं है। सबको सर्वदा निर्बाधरूपसे समुदायको प्रतीति होनेसे उसको मिथ्या नहीं कहा जा सकता है। इसी प्रकार एकत्वके अभावमें अनेक पदार्थोंमें साधर्म्य भी नहीं बन सकता है । एक पदार्थका दूसरे पदार्थके साथ-साधर्म्य होनेका कारण यह है कि उन पदार्थोंका सदृशरूसे परिणमन होता है। जब सदृश परिणामरूप एकत्व ही नहीं है, तो साधर्म्य या सादृश्य कैसे सिद्ध हो सकता है। बौद्ध सन्तान, समुदाय, साधर्म्य और प्रेत्यभाव आदिको मानते हैं, अतः उनको एकत्व मानना भी आवश्यक है। एकत्वके अभावमें उनमेंसे कोई भी सिद्ध नहीं हो सकता है। पृथक्त्वैकान्त पक्षमें अन्य दोषोंको बतलाते हुए आचार्य कहते हैं
सदात्मना च भिन्नं चेज्ज्ञानं ज्ञयाद् द्विधाप्यसत् । ज्ञानाभावे कथं ज्ञय बहिरन्तश्च ते द्विषाम् ॥३०॥ यदि ज्ञान ज्ञेयसे सत्त्वको सपेक्षासे भी पृथक् है, तो दोनों असत् हो जाँयगे। हे भगवन् ! आपसे द्वेष करने वालोंके यहाँ ज्ञानके अभावमें बहिरङ्ग और अन्तरंग ज्ञय कैसे हो सकता है ?
सब पदार्थों में सर्वथा पृथक्त्वैकान्त मानना ठीक नहीं है। सत्ताकी
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