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कारिका - १६ ]
तत्त्वदीपिका
१५९
कि वस्तु कथंचित् अवाच्य है । सत् आदि जितने भी पद हैं, वे सब एक ही अर्थको विषय करते हैं । 'सत्' पद सत्को ही विषय करता है असत्को नहीं, और 'असत्' पद असत् को ही विषय करता है, सत्को नहीं । ऐसा कोई एक पद नहीं है, जो सत् और अतत् दोनोंका कथन कर सके । प्रत्येक शब्द, पद तथा वाक्य एक ही अर्थका प्रतिपादन करते हैं । जहाँ 'गो' आदि शब्द अनेक अर्थोंका प्रतिपादन करते हैं, वहाँ अर्थभेदकी अपेक्षासे कथंचित् शब्दभेद भी मानना होगा । इस प्रकार यह निश्चित है कि कोई भी शब्द सत् और असत् इन दो धर्मोका एक समयमें प्रतिपादन नहीं कर सकता है । ऐसी स्थिति में वस्तुको अवाच्य माननेके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है । पहिले स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा हो, तदनन्तर स्वरूपादि चतुष्टय तथा पररूपादि चतुष्टयकी युगपत् अपेक्षा हो, तो वस्तु कथंचित् सदवक्तव्य होती है । पहले पररूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा हो, तदनन्तर स्वरूपादिचतुष्टय तथा पररूपादि चतुष्टयकी युगपत् अपेक्षा हो तो वस्तु कथंचित् असदवक्तव्य कही जाती है । पहले स्वरूपादि चतुष्टय और पररूपादि चतुष्टयकी क्रमसे अपेक्षा हो, तदनन्तर स्वरूपादिचतुष्टय तथा पररूपादि चतुष्टयकी युगपत् विवक्षा हो, तो वस्तु कथंचित् सदसदवक्तव्य मानी जाती है ।
अकलङ्क देवका ऐसा अभिप्राय है कि वस्तु परमतकी अपेक्षासे सदवक्तव्त, असदवक्तव्य और सदसदवक्तव्य है । ब्रह्माद्वैतवादियों के अनुसार सन्मात्र तत्त्व है । बौद्ध मानते हैं कि स्वलक्षणमात्र तत्त्व है । विशेषके अतिरिक्त सामान्य तत्त्वका सद्भाव नहीं है । नैयायिक-वैशेषिकोंके अनुसार तत्त्व पृथक्-पृथक् रूपसे सामान्य और विशेषरूप है । अकलङ्क देवकी दृष्टिमें अद्वैतमत के अनुसार तत्त्व सदवक्तव्य है । बौद्धमत के अनुसार असदवक्तव्य है, और न्याय-वैशेषिक मतके अनुसार सदसदवक्तव्य है ।
यदि विशेषनिरपेक्ष सामान्यमात्र तत्त्व है, तो ऐसे तत्त्वका प्रतिपादन अशक्य होनेसे उक्त तत्त्व सदववतव्य सिद्ध होता है । अर्थात् वेदान्तमतानुसार तत्त्व सत् होकर भी अवक्तव्य है । जो तत्त्व सर्वथा सन्मात्र है, वह किसी भी शब्दका वाच्य नहीं हो सकता है । और ऐसे तत्त्वके द्वारा अर्थक्रिया भी नहीं हो सकती है । मनुष्य व्यक्ति के अभाव में केवल मनुष्यत्वमात्र कोई कार्य नहीं कर सकता है । गौ व्यक्तिके विना
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