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कारिका - १७ ]
तत्त्वदीपिका
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तत्त्व असदवक्तव्य है, विशेषकी अपेक्षासे सदवक्तव्य है, और दोनोंकी अपेक्षासे सदसदवक्तव्य है ।
नैयायिक-वैशेषिक मानते हैं कि सामान्य और विशेष पृथक्-पृथक् स्वतंत्र पदार्थ हैं । सामान्य विशेष निरपेक्ष है, और विशेष सामान्यनिरपेक्ष है । उनके अनुसार सामान्य और विशेष सत् हैं । परन्तु जब सामान्य और विशेष पृथक् पृथक् हैं, तो वे किसी भी प्रकार सत् नहीं हो सकते हैं । कहा भी है
निर्विशेषं हि सामान्यं भवेच्छशविषाणवत् ।
अर्थात् विशेष रहित सामान्य खरगोशके सींगके समान असत् होता है, और सामान्य रहित विशेष भी ऐसा ही होता है । परस्पर निरपेक्ष होनेसे असत् सामान्य और विशेष शब्दके वाच्य कैसे हो सकते हैं । इस दृष्टिसे नैयायिक-वैशेषिकों के अनुसार तत्त्व सदसदवक्तव्य है । इस प्रकार अकलङ्क देवके अभिप्रायसे अन्तके तीन भंग परमतकी अपेक्षासे सिद्ध होते हैं ।
ब्रह्माद्वैतवादियों का कहना है कि तत्त्व अस्तित्वरूप ही है, नास्तित्वरूप तो पर वस्तुके आश्रित है, वह वस्तुका स्वरूप कैसे हो सकता है । उत्तरमें आचार्य कहते हैं
अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधर्मिणि ।
विशेषणत्वात् साधर्म्यं यथा भेदविवक्षया ॥ १७ ॥
विशेषण होनेसे अस्तित्व एक ही वस्तुमें प्रतिषेध्य ( नास्तित्व) का अविनाभावी है, जैसे हेतुमें विशेषण होनेसे साधर्म्य वैधर्म्यका अविनाभावी होता है ।
अस्तित्व और नास्तित्व ये परस्परमें अविनाभावी धर्म हैं । अस्ति - के विना नास्तित्व नहीं हो सकता है, और नास्तित्वके विना अस्तित्व नहीं होता है । अविनाभाव एक सम्बन्धका नाम है । यह उन दो पदार्थों में होता है, जिनमेंसे एक पदार्थ के विना दूसरा कभी नहीं हो सकता है | धूम और वह्निमें अविनाभाव सम्बन्ध है । वह्नि होने पर ही धूम होता है, और वह्निके अभावमें धूम कभी नहीं होता है । धूमका वह्नि के साथ अविनाभाव है, वह्निका धूमके साथ नहीं। क्योंकि वह्नि विना धूमके भी पायी जाती है । ऐसा नहीं है कि धूमके होने पर ही हो और धूमके अभाव में वह्नि न हो । किन्तु अस्तित्व और नास्तित्वमें उभयतः अविनाभाव है । अस्तित्व के विना नास्तित्व नहीं हो
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