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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ द्रव्यम्, ५. स्यादेकमवक्तव्यं च द्रव्यम्, ६. स्यादनेकवक्तव्यं च द्रव्यम्, ७. स्यादेकमनेकमवक्तव्यं च द्रव्यम् ।
द्रव्यसामान्यकी अपेक्षासे सब द्रव्य समान हैं, एक द्रव्यसे दूसरे द्रव्योंमें कोई भेद नहीं है । सबमें द्रव्यत्व, सत्त्व आदि धर्म समान रूपसे पाये जाते हैं। यद्यपि अनेक द्रव्योंमें प्रतिभास विशेषका अनुभव होता है, किन्तु सत्त्व, द्रव्यत्व आदिकी समानताके कारण उनमें कोई भेद नहीं है। जिस प्रकार चित्रज्ञानमें अनेक आकार होनेपर भी चित्रज्ञान एक ही रहता है, अनेक नहीं, उसी प्रकार समस्त द्रव्योंमें द्रव्यत्व, सत्त्व आदिके कारण द्रव्य व्यवहार होता है। इसलिए द्रव्य कथंचित् एक है। द्रव्य कथंचित् अनेक भी है। प्रत्येक द्रव्यका कार्य, स्वभाव आदि सब पृथक् पृथक् हैं । एक द्रव्यका जो स्वभाव है वह दूसरे द्रव्यका नहीं है, और एक द्रव्यका जो कार्य है वह दूसरे द्रव्यका नहीं है। उनका प्रतिभास भी भिन्न भिन्न रूपसे होता है। इसलिए द्रव्य कथंचित् अनेक है। अर्थात् सामान्यकी अपेक्षासे द्रव्य एक है सौर विशेषकी अपेक्षासे अनेक है। जब सामान्य और विशेषकी अपेक्षासे क्रमशः कथन किया जाता है तब द्रव्य कथंचित् एक और अनेक सिद्ध होता है। उभय दृष्टिसे युगपत् कथनकी विवक्षा होनेपर द्रव्य अवक्तव्य सिद्ध होता है। सामान्य और विशेषकी अपेक्षासे किसी वस्तुका जो प्रतिपादन किया जायगा वह क्रमशः ही संभव है, एक साथ और एक शब्दके द्वारा दो धर्मोका प्रतिपादन किसी भी प्रकार संभव नहीं है। ऐसी स्थितिमें द्रव्यको अवक्तव्य ही कहना पड़ेगा। इसी प्रक्रियाके अनुसार आगेके तीन भंगोंको भी समझ लेना चाहिए।
एकत्व धर्म निमित्तक सप्तभंगी अन्य पदार्थोमें भी उक्त क्रमसे घटित होती है । जैसे-स्वर्ण स्यादेकं, स्यादनेकम्, स्यादुभयम्, स्यादवक्तव्यम्, स्यादेकमवक्तव्यम्, स्यादनेकमवक्तव्यम्, स्यादेकानेकमवक्तव्यम् ।
द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिसे सब स्वर्ण एक है। स्वर्णके जितने भी आभूषण हैं उनमें स्वर्णकी दृष्टिसे कोई भेद नहीं है। अतः सामान्यकी अपेक्षासे अथवा द्रव्याथिकनयकी अपेक्षासे स्वर्ण एक सिद्ध होता है। वही स्वर्ण विशेषकी अपेक्षासे अथवा पर्यायाथिकनयकी अपेक्षासे अनेक सिद्ध होता है। स्वर्णकी जितनी पयायें हैं वे सब एक दूसरेसे भिन्न हैं, एक पर्यायका जो काम है वह दूसरी पर्याय नहीं कर सकती है। कुण्डल, कटक, केयूर आदि स्वर्णके जितने आभूषण हैं, वे पर्यायकी
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