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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ ही हो जायगा, क्योकि सत्त्व, असत्त्व आदि धर्म जीवसे अभिन्न हैं । अतः एक धर्मका ज्ञान होनेसे ही अन्य धर्मोंका ज्ञान हो जाना स्वाभाविक है । ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं
धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽन्तधर्मणः ।
अङ्गित्वेऽन्यतमान्तस्य शेषान्तानां तदङ्गता ॥२२॥ अनन्तधर्मवाले धर्मीके प्रत्येक धर्मका अर्थ भिन्न-भिन्न होता है। और एक धर्मके प्रधान होने पर शेष धर्मोकी प्रतीति गौणरूपसे होती है। . जीवादि जितने पदार्थ हैं, उन सबमें अनन्त धर्म पाये जाते हैं। उन अनन्त धर्मोमेंसे प्रत्येक धर्मका अर्थ पृथक-पृथक होता है। एक धर्मका जो अर्थ होता है, दूसरे धर्मका अर्थ उससे भिन्न होता है। यदि सब धर्मोका अर्थ एक ही होता, तो प्रथम भंगसे एक धर्मकी प्रतीति होनेपर शेष धर्मोकी प्रतीति भी प्रथम भंगसे ही हो जाती। और ऐसा होनेसे इतर भंगोंकी निरर्थकता भी सिद्ध होती। प्रथम भङ्गसे सत्त्व धर्मकी प्रधानरूपसे प्रतीति होती है, और द्वितीय भङ्गसे असत्त्व धर्मकी प्रधानरूपसे प्रतीति होती है। एक भङ्गके द्वारा अपने धर्मकी प्रतीति होती है, दूसरेके धर्मकी नहीं। धर्मी भी धर्मोंसे सर्वथा अभिन्न नहीं है, जिससे एक धर्मकी प्रतीति होने पर शेष धर्मोकी प्रतीति सिद्ध की जा सके। प्रत्येक धर्मकी अपेक्षासे धर्मीका स्वभाव भी भिन्न हो जाता है। यदि प्रत्येक धर्मकी अपेक्षासे धर्मीमें स्वभाव भेद न होता, तो किसी पदार्थको एक प्रमाणके द्वारा जानने पर उसमें शेष प्रमाणोंकी प्रवृत्तिनिरर्थक होती। और गृहीतग्राही होनेसे पुनरुक्त दोष भी आता। इसलिए प्रत्येक धर्मकी अपेक्षासे धर्मीमें स्वभाव भेद होता है ।
बौद्ध यद्यपि धर्मीमें स्वतः स्वभाव भेद नहीं मानते हैं, किन्तु अन्यव्यावृत्तिके द्वारा स्वभावभेदकी कल्पना करते हैं। जैसे शब्दमें स्वतः कोई स्वभावभेद नहीं है, किन्तु असत्, अकृतक आदिसे व्यावृत्त होनेके कारण शब्दको सत्, कृतक आदि कहते हैं। बौद्धोंका यह कहना तब ठीक होता, जब उनके यहाँ वस्तुभूत असत्, अकृतक आदि रूप कोई पदार्थ होता। जब वैसा कोई पदार्थ ही नहीं है, तो उससे किसीकी व्यावृत्ति कैसे हो सकती है, और सत्, कृतक आदिकी कल्पना भी कैसे की जा सकती है। वास्तविक स्वभावोंकी सद्भाव होने पर कोई स्वभाव प्रधान
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