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कारिका-२१]
तत्त्वदीपिका उत्पत्ति नही होती है। क्या कभी किसीने आकाशपुष्पकी उत्पत्ति देखी है। जो पदार्थ सर्वथा सत् या असत् है, उसकी उत्पत्तिकी कल्पना भी नहींकी जा सकती है। आकाशको सत् होनेसे तथा वन्ध्यासूतको असत होनेसे इनकी उत्पत्ति संभव नहीं है । जो पदार्थ द्रव्यकी अपेक्षासे सत् होता है और पर्यायकी अपेक्षासे असत् होता है, उसीकी उत्पत्ति और विनाश होता है।
यथार्थमें द्रव्य वही है, जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सहित है। द्रव्यकी अपेक्षासे वह ध्रौव्यरूप है, एवं पर्यायकी अपेक्षासे उत्पाद और व्ययरूप है, सत् भी वही कहलाता है जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पाये जावें । मिट्टी द्रव्यरूपसे सदा ध्रुव रहती है, द्रव्यका नाश त्रिकालमें भी नहीं होता है। नाश केवल पर्यायका होता है। स्वर्ण सब अवस्थाओंमें स्वर्णही रहता है, केवल उसकी पर्यायें बदलती रहती हैं। स्वर्ण के अनेक आभूषण बनते हैं । कुण्डल को तुड़वाकर चूड़ा बनवा लिया जाता है। किन्तु इन सब पर्यायमें स्वर्णकी सत्ता बराबर बनी रहती है। केवल कुण्डल पर्यायका नाश और चूड़ा पर्यायकी उत्पत्ति होती है। किसी पर्यायका जो विनाश होता है, वह निरन्वय नहीं होता है, जैसा कि बौद्ध मानते हैं। निरन्वय विनाश माननेसे आगे की पर्यायकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। यदि कुण्डल पर्यायका सर्वथा विनाश हो जाय, और चूड़ा पर्यायके साथ उसका कुछ भी सम्बन्ध न हो, तो चूड़ाकी उत्पत्ति होना असंभव है । अतः यह मानना आवश्यक है कि किसी भी पर्यायका विनाश निरन्वय न होकर सान्वय होता है । कोई भी पर्याय सर्वथा नष्ट नहीं होती है, किन्तु एक पर्याय दूसरी पर्यायमें बदल जाती है। इस बातको विज्ञान भी स्वीकार करता है कि संसारमें जितने जड़ पदार्थ या अणु हैं, वे सदा उतने ही रहते हैं, कभी घटते या बढ़ते नहीं हैं । इसका तात्पर्य यह है कि किसी पदार्थका द्रव्यरूपसे कभी नाश नहीं होता है, द्रव्यको अपेक्षासे वह सदा स्थिर रहता है । ___अतः जो द्रव्यकी अपेक्षासे सत् और पर्यायकी अपेक्षासे असत् होता है, वही पदार्थ अर्थक्रिया कर सकता है। इसके अभावमें अर्थक्रियाका होना असंभव है। जो पदार्थ सर्वथा सत् अथवा असत् है, वह सैकड़ों सहकारी कारणोंके मिलने पर भी कार्य नहीं कर सकता है।
प्रथम भंगसे सत्रूप जीवादि तत्त्वोंकी प्रतीति होने पर द्वितीय आदि भंगोंके द्वारा प्रतिपाद्य असत्त्व आदि धर्मोंका ज्ञान भी प्रथम भंगसे
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