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१६६ आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-१ में अविनाभावी धर्म हैं। जिस प्रकार नास्तित्वके विना अस्तित्व नहीं हो सकता है, उसी प्रकार अस्तित्वके विना नास्तित्व भी नहीं हो सकता है । हेतुमें वैधयंका सद्भाव साधर्म्यकी अपेक्षासे ही होता है। शब्द अनित्य है, क्योंकि वह कृतक है। जो अनित्य नहीं होता है, वह कृतक भी नहीं होता है, जैसे आकाश, यह हेतु का वैधर्म्य है। जो कृतक होता है वह अनित्य होता है, जैसे घट । यह हेतुका साधर्म्य है। हेतु में जो वैधर्म्य पाया जाता है वह साधर्म्यके विना नहीं हो सकता है। हेतुमें अन्वय और व्यतिरेकका कथन साधर्म्य और वैधर्म्य धर्मोकी अपेक्षासे होता है। यदि अन्वय और व्यतिरेकका कथन वास्तविक धर्मोके आधारसे न हो तो विपरीतरूपसे भी अन्वय और व्यतिरेक दिखाये जा सकते हैं। जो कृतक होता है, वह अनित्य होता है, जैसे आकाश, और जो अनित्य नहीं होता है, वह कृतक नहीं है, जैसे घट । इस प्रकार पारमार्थिक धर्मोंके अभावमें विपरीत रूपसे भी अन्वय और व्यतिरेकके दिखाने में कौनसी बाधा हो सकती है। तात्पर्य यह है कि हेतुमें अन्वय
और व्यतिरेक वास्तविक होते हैं, काल्पनिक नहीं। जो धर्म किसीका विशेषण होता है वह नियमसे अपने प्रतिपक्षी धर्मका अविनाभावी होता है। जिस प्रकार हेतुमें वैधर्म्य विशेषण अपने प्रतिपक्षी साधर्म्यका अविमाभावी है, उसी प्रकार वस्तुमें नास्तित्व विशेषण अपने प्रतिपक्षी अस्तित्वका अविनाभावी है । वस्तु पररूपादिकी अपेक्षासे असत् है। यदि ऐसा न हो अर्थात् पररूपादिकी अपेक्षासे भी वस्तु सत् हो तो किसी वस्तुका कोई निश्चित स्वभाव न होनेके कारण संसारके समस्त पदार्थों में संकर ( मिश्रण ) हो जायगा। घटका काम घट ही करता है, पट नहीं, क्योंकि घटका स्वभाव भिन्न है, और पटका स्वभाव भिन्न है। यदि घट और पटका स्वभाव एक हो, तो पटको घटका काम करना चाहिए और घटको पटका काम करना चाहिए। सब पदार्थ अपनी अपनी शक्ति और स्वभावके अनुसार अपना अपना कार्य करते हैं। कोई भी पदार्थ दूसरे पदार्थका कार्य कभी भी नहीं करता है। इससे प्रतीत होता है कि सब पदार्थोंका स्वभाव पृथक् पृथक् है। धर्म, धर्मी, गुण, गुणी आदिकी व्यवस्था भी कल्पित न होकर पारमार्थिक है। पदार्थोंमें भेद, अभेद आदि व्यवस्था पदार्थों के स्वभावके अनुसार होती है । पदार्थों में जो नास्तित्व धर्म है वह अस्तित्वका अविनाभावी है, और जो अस्तित्व धर्म है वह नास्तित्वका अविनाभावी है । दोनों धर्म परस्पर सापेक्ष हैं। इसी प्रकार नित्यत्वादि जितने मी धर्म हैं वे सब अपने प्रतिषेध्यके अविनाभावी होते हैं।
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