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कारिका-१३] तत्त्वदीपिका
१३९ यः प्रागजनको बुद्धरुपयोगाविशेषतः ।
स पश्चादपि तेन स्यादर्थापायेऽपि नेत्रधीः ॥ ठीक इसी प्रकारका दूषण बौद्धोंके यहाँ भी आता है। जिस प्रकार निर्विकल्पक प्रत्यक्ष स्मार्त शब्दयोजनाके पहिले सविकल्पक प्रत्यक्षका जनक नहीं है, उसी प्रकार स्मार्त शब्दयोजनाके बाद भी वह उसका अजनक ही रहेगा । अतः निर्विकल्पक प्रत्यक्षके विना ही सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पति हो जाना चाहिए-कहा भी हैं।
यः प्रागजनको बुद्धरुपयोगाविशेषतः।
स पश्चादपि तेनाक्षबोधापायेऽपि कल्पना॥ बौद्धोंके यहाँ एक दोष यह भी आता है कि जिस समय अनभिलाप्य स्वलक्षणका अनुभव हो रहा है उस समय अभिलाप्य सामान्यका स्मरण सम्भव नहीं है। क्योंकि उनके यहाँ दोनोंमें अत्यन्त भेद माना गया है। जैसे सह्याचल और विन्ध्याचल दोनों पर्वत नितान्त भिन्न और दूर दूर स्थित हैं। अतः उनमेंसे एकके देखने पर दूसरेका स्मरण नहीं हो सकता है । उसी प्रकार विशेष और सामान्य जब नितान्त पथक हैं तो एकके देखने पर दूसरेकी स्मृति होना सम्भव नहीं है । यह कहना भी ठीक नहीं है कि विशेष और सामान्यमें एकत्वाध्यवसाय हो जानेसे विशेषके देखने पर सामान्यकी स्मृति हो जाती है, क्योंकि विशेष और सामान्यमें एकत्वाध्यवसायका ग्रहक कोई प्रमाण नहीं है। केवल विशेषको विषय करनेके कारण प्रत्यक्ष दोनोंके एकत्वाध्यवसायको नहीं जान सकता है. और केवल सामान्यको विषय करनेके कारण अनुमान भी दोनोंके एकत्वाध्यवसायको नहीं जान सकता है।
यदि शब्द और अर्थमें स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है तो अर्थके देखने पर शब्दका स्मरण और शब्दके सुनने पर अर्थका स्मरण नहीं होना चाहिए । बौद्ध मानते हैं कि शब्द और अर्थमें कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी अर्थके देखने पर शब्दका स्मरण और शब्दके सुनने पर अर्थका स्मरण होता है। इसका कारण यह है कि शब्दका सामान्यके साथ तदुत्पत्तिलक्षण सम्बन्ध है, और सामान्यका विशेषके साथ एकत्वाध्यवसाय हो जाता है। अर्थात् शब्दका साक्षात् सम्बन्ध विशेषके साथ न होकर सामान्यके साथ है। किन्तु विशेष और सामान्यमें एकत्वाध्यवसाय हो जानेसे शब्दका विशेषके साथ भी परम्परा सम्बन्ध है । अतः अर्थके देखने पर शब्दका स्मरण और शब्दके सुनने पर अर्थका स्मरण होने में कोई बाधा नहीं है।
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