________________
आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद- १
बौद्धका उक्त कथनयुक्ति संगत नहीं है । क्योंकि सामान्य और विशेषमें एकत्वाध्यावसायका निश्चय किसी प्रमाणसे नहीं होता है । चक्षु आदि इन्द्रियोंसे जन्य प्रत्यक्षज्ञान यदि किसी भी प्रकार व्यवसायात्मक नहीं है तो किसी पदार्थ के देखने पर उसीके समान पहले देखे हुए पदार्थका स्मरण नहीं होना चाहिए, जिस प्रकार कि दानशील तथा अहिंसक व्यक्तिको स्वर्गादि फल उत्पन्न करनेकी शक्तिका अनुभव होने पर भी उसकी स्मृति नहीं होती है, और पदार्थमें क्षणिकत्वका अनुभव होने पर भी उसकी स्मृति नहीं होती है । व्यवसायात्मक मानस प्रत्यक्षसे दृष्ट पदार्थ के सजातीय पदार्थकी स्मृति मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अव्यवसायात्मक इन्द्रियज्ञानसे व्यवसायात्मक मानस प्रत्यक्षकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । और यदि अदृष्ट आदि किसी सहकारी कारणकी अपेक्षासे व्यवसायात्मक मानस प्रत्यक्षकी उत्पत्ति होती है, तो स्वयं व्यवसायात्मक इन्द्रियज्ञानकी उत्पत्ति भी उसी प्रकार होने में क्या आपत्ति है ।
१४०
शंका- इन्द्रियज्ञानसे नील, पीत आदिका व्यवसाय मानने पर क्षणक्षय, स्वर्गप्रापणशक्ति आदिका भी व्यवसाय मानना पड़ेगा । इसलिए इन्द्रियज्ञान व्यवसायात्मक नहीं है ।
उत्तर - मानस प्रत्यक्षको भी उक्त कारणसे व्यवसायात्मक नहीं मानना चाहिए ।
शंका- मानसप्रत्यक्ष क्षणक्षय आदिको विषय नहीं करता है, इसलिए क्षणक्षय आदिके व्यवसाय करनेका प्रश्न ही नहीं है ।
उत्तर -- यदि यही बात है तो इन्द्रियज्ञान भी क्षणक्षय आदिको विषय नहीं करता है । अतः इन्द्रियज्ञान में भी क्षणक्षय आदिके व्यवसायका प्रसङ्ग प्राप्त नहीं होगा ।
शंका- ऐसा मानने पर नीलादिसे क्षणक्षय आदिको भिन्न मानना पड़ेगा | क्योंकि नीलादिका व्यवसाय होने पर भी क्षणक्षय आदिका व्यवसाय नहीं हुआ । जैसे कि जिस खंभे पर पिशाच बैठा हुआ है उसका ज्ञान होने पर भी पिशाचका ज्ञान नहीं होता है तो पिशाच खंभे से भिन्न है ।
उत्तर - यही बात मानसप्रत्यक्ष के विषय में भी है । यदि मानसप्रत्यक्षसे नीलादिका व्यवसाय होने पर भी क्षणक्षय आदिका व्यवसाय नहीं होता है तो नीलादिसे क्षणक्षय आदिमें भेद प्राप्त होगा ही ।
अतः इन्द्रियज्ञानको अव्यवसायात्मक मानना किसी भी प्रकार ठीक नहीं है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.