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कारिका - १५ ]
तत्त्वदीपिका
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स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षासे सब पदार्थोंको सत् कौन नहीं मानेगा और पररूपादि चतुष्टयकी अपेक्षासे सब पदार्थों को असत् कौन नहीं मानेगा ।
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प्रत्येक तत्त्व स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षासे सत् है, और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षासे असत् है । जितना भी चेतन या अचेतन तत्त्व है, वह सब स्वद्रव्य आदिकी अपेक्षासे सत् है, और पर द्रव्य आदिकी अपेक्षासे असत् है । चाहे कोई लौकिक हो या परीक्षक, स्याद्वादी हो या सर्वथैकान्तवादी, यदि उसका मस्तिष्क सुस्थ है, तो उसको ऐसा मानना ही पड़ेगा । जिस प्रकार तत्त्व स्वरूप आदिकी अपेक्षासे सत् है, उसी प्रकार पररूप आदिकी अपेक्षासे भी सत् हो, तो चेतन और अचेतनमें कोई भेद ही नहीं रहेगा । चेतन और अचेतन में ही क्या, चेतन और अचेतन तत्त्वोंमें भी परस्परमें कोई भेद नहीं रहेगा । और यदि तत्त्व परद्रव्य आदिकी अपेक्षाकी तरह स्वद्रव्य आदिकी अपेक्षासे भी असत् हो, तो सब तत्त्व शून्य हो जायगे । वस्तु यदि स्वद्रव्यकी अपेक्षा की तरह परद्रव्यकी अपेक्षासे भी सत् हो, तो द्रव्यका कोई नियम नहीं रहेगा, घट पट हो जायगा और पट घट हो जायगा । और परद्रव्यकी तरह स्वद्रव्यकी अपेक्षासे भी वस्तु असत् हो, तो जगत् में किसी तत्त्वका सद्भाव नहीं रहेगा । इसी प्रकार स्वक्षेत्रकी तरह परक्षेत्रकी अपेक्षा से भी वस्तु सत् हो तो किसीका कोई नियत क्षेत्र नहीं होगा, स्वकालकी अपेक्षाकी तरह परकालकी अपेक्षा से भी सत् हो तो किसीका कोई नियत काल नहीं होगा, और स्वभावकी तरह परभावकी अपेक्षासे भी सत् हो तो किसीका कोई नियत स्वभाव नहीं रहेगा । इसके विपरीत वस्तु यदि परक्षेत्रकी तरह स्वक्षेत्रकी अपेक्षासे भी असत् हो, तो वस्तु क्षेत्र रहित हो जायगी, परकालकी तरह स्वकालकी अपेक्षासे भी असत् हो, तो वस्तु कालरहित हो जायगी । तथा परभावकी तरह स्वभावकी अपेक्षासे भी असत् हो, तो वस्तु स्वभाव रहित हो जायगी । अतः वस्तु न तो सर्वथा सत् है, और न सर्वथा असत्, किन्तु स्वद्रव्यादिकी अपेक्षासे सत् और परद्रव्यादिकी अपेक्षासे असत् है ।
यहाँ यह शंका की जा सकती है कि वस्तुमें स्वरूपसत्त्व और पररूपासत्त्व कोई पृथक्-पृथक् धर्म नहीं हैं, किन्तु स्वरूपसत्त्वका नाम ही पररूपासत्त्व है । अतः स्वरूपसत्त्व और पररूपासत्त्वको पृथक्-पृथक् धर्म न होनेसे प्रथम और द्वितीय भंग नहीं बन सकते हैं । उक्त शंका निराधार है । स्वरूपादि चतुष्टय तथा पररूपादि चतुष्टयकी अपेक्षासे
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