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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद- १
वस्तु स्वरूपभेद हो जानेसे स्वरूपसत्त्व, और पररूपासत्त्वमें भी भेद होना स्वाभाविक है । यदि स्वरूपसत्त्व और पररूपासत्त्वमें भेद न हो, तो स्वरूपादि चतुष्टयकी तरह पररूपादि चतुष्टयकी अपेक्षासे भी वस्तु सत् होगी, और पररूपादि चतुष्टयकी तरह स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षासे भी असत् होगी । सर्वत्र अपेक्षाभेदसे धर्मभेद पाया जाता है । बेरकी अपेक्षासे बेल स्थूल है, और मातुलिङ्गकी अपेक्षासे सूक्ष्म है । बेलमें स्थूलत्त्व और सूक्ष्मत्त्व दोनोंके सद्भावमें कोई बाधा भी नहीं आती है । ये दोनों धर्म एक भी नहीं हैं, किन्तु पृथक्-पृथक् हैं । इसी तरह स्वरूपसत्त्व और पररूपासत्त्व भी दो पृथक्-पृथक् धर्म हैं, और उनके सम्बन्धसे प्रथम और द्वितीय दो पृथक्-पृथक् भंग सिद्ध होते हैं ।
पटरूपसे नहीं । यदि
पदार्थको कथंचित् सदसदात्मक सिद्ध करनेमें अन्य युक्तियाँ भी दी जा सकती हैं । पदार्थ कथंचित् सदसदात्मक है, क्योंकि सब पदार्थ सब पदार्थोंके कार्यको नहीं कर सकते हैं । शीतसे रक्षा करना, शरीरका आच्छादन करना आदि पटका कार्य है, और कूपसे पानी निकालना, पानी भरना आदि घटका कार्य है । पटका जो कार्य है, उसको घट नहीं कर सकता है, क्योंकि घट घटरूपसे सत् है, घट पटरूपसे भी सत् होता, तो उसे पटका काम करना चाहिए था । यही बात सब पदार्थोंके विषयमें है । सब पदार्थ अपना-अपना कार्य करते हैं, दूसरोंका नहीं । इससे सिद्ध होता है कि सब पदार्थ स्वरूपकी अपेक्षासे सत् हैं, और पररूपकी अपेक्षासे असत् हैं । यदि स्वरूपकी अपेक्षा भी असत् होते तो, जिस प्रकार वे दूसरोंका कार्य नहीं करते हैं, उसी प्रकार अपना भी कार्य नहीं करते । किन्तु देखा यही जाता है कि प्रत्येक पदार्थ अपना ही कार्य करता है, और कोई भी पदार्थ दूसरे पदार्थका कार्य कभी नहीं करता । इससे सिद्ध होता है कि पदार्थ कथंचित् सत् और कथंचित् असत् है ।
यह कहा जा सकता है कि एक ही वस्तु में सत्त्व और असत्त्व मानना युक्ति विरुद्ध है, क्योंकि परस्पर विरोधी धर्मोका एक ही वस्तुमें होना संभव नहीं है । उक्त कथन ठीक नहीं है । युक्तिपूर्वक विचार करनेपर प्रतीत होता है कि एक ही वस्तु में सत्त्व और असत्त्वका सद्भाव युक्तिविरुद्ध नहीं है, किन्तु प्रतीति सिद्ध है । विरोध तो तब होता, जब सत्त्व और असत्त्व दोनोंका सद्भाव एक ही दृष्टिसे माना जाता । स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा से वस्तु सत् है । और यदि वस्तु स्वरूपादि चतुष्टयकी
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