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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ अनिश्चित है वह मूच्छित व्यक्तिके द्वारा गृहीत वस्तुके समान गृहीत होकरके भी अगृहीतके समान है । इसलिए तत्त्वको सर्वथा अवाच्य मानना ठीक नहीं है । अवाच्यकी तरह तत्त्व सर्वथा वाच्य भी नहीं है।
शब्दाद्वैतवादियोंके मतानुसार तत्त्व सर्वथा वाच्य है। उनका कहना है कि
लोकमें ऐसा कोई भी प्रत्यय नहीं है जो शब्दके विना होता हो, सम्पूर्ण पदार्थ शब्दमें प्रतिष्ठित एवं अनुविद्ध हैं। ज्ञानमेंसे यदि वचनरूपता निकल जावे तो ज्ञान अपना प्रकाश नहीं कर सकता है, क्योंकि वचनरूपता ही अवमर्श करने वाली है।
उक्त मत भी अविचारित ही है। तत्त्व यदि सर्वथा वाच्य है, तो चक्षुरादि इन्द्रियोंसे होने वाले ज्ञान में तथा शब्दजन्य ज्ञानमें कोई विशेषता ही नहीं रहेगी। जिस प्रकार शब्दजन्य ज्ञानका विषय वाच्य है, उसी प्रकार चक्षुरादि इन्द्रियजन्य ज्ञानका विषय भी वाच्य होनेसे दोनों ज्ञान समान हो जावेंगे। चक्षुरादि और शब्दादि सामग्रीके भेदसे ज्ञानोंमें भेद मानना भी ठीक नहीं है। क्योंकि तब दोनों प्रकारके ज्ञानों द्वारा वाच्य वस्तुको प्रतिपत्ति समानरूपसे होगी ।
इस प्रकार तत्त्व न तो सर्वथा अवाच्य है, और न सर्वथा वाच्य, किन्तु कथंचित् अवाच्य है। कथंचित् अवाच्य कहनेसे यह स्वयं सिद्ध हो जाता है कि तत्त्व कथंचित् वाच्य है। इसी प्रकार तत्त्व कथंचित् सदवाच्य, असदवाच्य और सदसदवाच्य भी है। क्योंकि सर्वथा सत् अथवा असत् तत्त्व अवाच्य नहीं हो सकता है। जो स्वद्रव्य आदिकी अपेक्षासे सत् और पर द्रव्य आदिकी अपेक्षासे असत है, उसीमें अवाच्यत्व धर्म पाया जाता है। इस प्रकार सामान्यरूपसे सात भंगोंका निरूपण करके अग्रिम कारिका द्वारा प्रथम और द्वितीय भंगोंमें नययोगको दिखलाते हुए आचार्य कहते हैं
सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।।१५।। न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिवाभाति सर्व शब्दे प्रतिष्ठितम् ॥ वाग्रूपता चेदुत्क्रामेदवबोधस्य शाश्वती। न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमशिनी ॥
-वाक्यप० १।१२४-१२५
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