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कारिका - १४ ]
तत्त्वदीपिका
१४७
जो असत्त्व द्वितीय धर्मगत है, वही असत्त्व तृतीय धर्मगत है । प्रथम धर्म में प्रधानरूपसे सत्की विवक्षा है, और तृतीय धर्म में क्रमशः प्रधानरूपसे सत् और असत् की विवक्षा है । यदि प्रथम और तृतीय धर्म तथा द्वितीय और तृतीय धर्मको मिलाकर अन्य दो पृथक् धर्म माने जावें, तो उनका रूप ऐसा होगा -- क्रमशः सत्, सत् तथा असत् की विवक्षा, क्रमशः असत्, सत् तथा असत् की विवक्षा । अब प्रथम और तृतीय धर्ममें जो दो बार सत्की विवक्षा है, व द्वितीय और तृतीय धर्म में जो दो बार असत् की विवक्षा है, उसमें दो सत् और दो असत् भिन्न-भिन्न नहीं हैं, किन्तु वही सत् तथा वही असत् ही पुनः विवक्षित है । इसलिए प्रथम और तृतीय धर्मको मिलाकर तथा द्वितीय और तृतीय धर्मको मिलाकर दो पृथक् धर्म किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकते हैं ।
शंका -- यदि प्रथम और तृतीय धर्मको मिलाकर तथा द्वितीय और तृतीय धर्मको मिलाकर पृथक्-पृथक् धर्म सिद्ध नहीं होते हैं, तो प्रथम और चतुर्थ, द्वितीय और चतुर्थ तथा तृतीय और चतुर्थ धर्मोंको मिला कर भिन्न-भिन्न धर्म कैसे सिद्ध हो सकते हैं ।
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उत्तर - प्रथम और चतुर्थ, द्वितीय और चतुर्थं तथा तृतीय और चतुर्थ धर्मोंको मिला कर अन्य तीन पृथक् धर्म माननेमें कोई बाधा नहीं है । क्योंकि चतुर्थ जो अवक्तव्यत्व धर्म है, उसमें सत्त्व और असत्त्वका कुछ भी परामर्श नहीं होता है । वहाँ तो सत्त्व और असत्त्व दोनोंकी एक साथ प्रधानरूपसे विवक्षा रहती है, किन्तु दोनों धर्मोंका एक साथ और एक ही समय में प्रतिपादन होना असंभव है । इसीलिये अवक्तव्यत्व नामक एक पृथक् धर्म माना गया है । जहाँ पहले सत्त्व धर्मको प्रधानरूपसे कहनेकी अपेक्षा होती है, और पुनः दोनों धर्मोंको एक साथ कहने
अपेक्षा होती है, वहाँ 'स्यादस्ति अवक्तव्यं वस्तु' इस प्रकारके एक पृथक् धर्मकी व्यवस्था होती है । यहाँ प्रथम धर्म में जो अस्तित्व है, तथा चतुर्थ धर्म अवक्तव्यत्वमें जो अस्तित्व है, वह एक ही है, ऐसा मानना ठीक नहीं है । क्योंकि अवक्तव्यत्वमें अस्तित्वका कोई विचार ही नहीं है । जिस प्रकार प्रथम भंग में अस्तित्वका पृथक् सत्त्व है, उस प्रकार चतुर्थभंगमें अस्तित्वका कोई पृथक् सत्त्व नहीं है । इसलिए प्रथम और चतुर्थ भंगको मिलाकर एक पृथक् धर्म सिद्ध होता है । इसी प्रकार द्वितीय और चतुर्थ तथा तृतीय और चतुर्थ धर्मोंको मिलाकर भी पृथक्-पृथक् धर्म सिद्ध होते हैं । क्योंकि अवक्तव्य शब्दके द्वारा न तो अस्तित्वका ही प्रतिपादन
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