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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ बौद्धोंका उक्त कथन अयुक्त तो है ही, साथ ही बौद्ध आगमसे भी विरुद्ध है । स्वयं बौद्ध ग्रन्थोंमें अभावको भी एक धर्म माना नया हैशब्दार्थस्त्रिविधो धर्मो भावाभावोभयाश्रितः ।
प्रमाणवा० ३।२६ यहाँ धर्मको तीन प्रकारका बतलाया गया है—भावरूप, अभावरूप और उभयरूप । जितने भी पदार्थ हैं, वे सब भाव और अभाव इन दो रूपोंसे इस प्रकार बँधे हुए हैं, जैसे नसैनीके पाये दोनों ओरसे दो काष्ठोंसे जकड़े रहते हैं। न तो कोई पदार्थ भावरूप ही है, और न अभावरूप ही, किन्तु प्रत्येक पदार्थ दोनों रूप है। स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे भावरूप है। तथा परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे अभावरूप है। कोई भी प्रमाण न तो सर्वथा भावको ही ग्रहण करता है, और न सर्वथा अभावको ही । बौद्धोंके यहाँ प्रमाण केवल भावको ही जानता है, अभावको नहीं, क्योंकि पदार्थ भावरूप ही है, अभावरूप नहीं । किन्तु यदि पदार्थ अभावरूप नहीं है, तो वह भावरूप भी नहीं हो सकता है। भाव और अभाव ये दोनों परस्परमें सापेक्ष हैं । एकके विना दूसरा नहीं हो सकता है । इस दोषको दूर करनेके लिए यदि बौद्ध अभावको भी प्रमाणका विषय मानना चाहें तो उनको प्रत्यक्ष और अनुमानसे अतिरिक्त एक तीसरा प्रमाण मानना पड़ेगा। क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान केवल भावको ही जानते हैं। और यदि बौद्धोंको तृतीय प्रमाण मानना अनिष्ट है। तो अभावको वस्तुका ही धर्म मानना चाहिए । वस्तु उभयात्मक ( भावाभावात्मक ) है, और ऐसी वस्तु ही प्रमाणका विषय होती है । इस प्रकार, जो केवल भावकी ही सत्ता मानते हैं, ऐसे भावैकान्तवादियोंके मतमें किसी भी इष्ट तत्त्वकी सिद्धि नहीं हो सकती है।
अब अभावैकान्तवादमें जो-जो दोष आते हैं, उनको बतलानेके लिए आचार्य कहते हैं
अभावैकान्तपक्षेपि भावापह्नववादिनाम् ।
बोधवाक्यं प्रमाणं न केन साधनदूषणम् ॥१२॥ भावको नहीं माननेवाले अभावैकान्तवादियोंके मतमें भी इष्ट तत्त्वकी सिद्धि नहीं हो सकती है। वहाँ न बोध प्रमाण है, और न वाक्य । और प्रमाणके अभावमें स्वमतकी सिद्धि तथा परमतका खण्डन किसी भी प्रकार संभव नहीं है।
अभावैकान्तवादी अथवा शून्यकान्तवादी कहते हैं कि केवल अभाव ही तत्त्व है, और भावको सत्ता किसी भी प्रकार नहीं है। उनके मतमें
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