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कारिका-१३ ]
तत्त्वदीपिका उभयकात्म्यकी असिद्धि और भावैकान्त या अभावैकान्तकी सिद्धि नियमसे होगी। ___ सांख्य भी व्यक्त और अव्यक्तमें तादात्म्य मानते हैं । महत् आदि तत्त्व नित्य नहीं हैं, क्योंकि प्रकृतिमें इनका तिरोभाव हो जाता है । तिरोभाव हो जानेपर भी इन तत्त्वोंका सद्भाव बना रहता है, क्योंकि इनके विनाशका निषेध किया गया है । इस प्रकार कहने वाला सांख्य स्याहादरूपी अभेद्य किलाके द्वार पर तो पहुँच गया है, लेकिन उसमें प्रवेश नहीं कर पा रहा है। जैसे अन्धा सर्प बिलके चारों ओर चक्कर लगाता रहता है, परन्तु दृष्टि न होनेसे उसमें प्रवेश नहीं कर पाता है। यदि महदादि तत्त्व व्यक्त रूपसे नहीं हैं, और अव्यक्तरूपसे हैं, तो ऐसी व्यवस्था स्याद्वादमतमें ही बन सकती है। यदि व्यक्त और अव्यक्त सर्वथा एक हैं, तो उन दोनोंमें कोई एक ही शेष रहेगा। अतः कथंचित् ऐक्य मानना ही श्रेयस्कर है, और ऐसा माननेसे स्याद्वादमतका अनुसरण अनिवार्य है। इसलिये सर्वथा उभयैकात्म्यवाद ठीक नहीं है।
बौद्ध तत्त्वको अवाच्य मानते हैं । बौद्धदर्शनके प्रकरणमें यह बतलाया जा चुका है कि बौद्ध मतमें पदार्थको स्वलक्षण कहते हैं । स्वलक्षण शब्दका वाच्य नहीं होता है। इस प्रकार जो तत्त्वको अवाच्य कहता है, वह अवाच्य शब्दका प्रयोग भी नहीं कर सकता है । और शब्द-प्रयोगके अभावमें दूसरोंको पदार्थका बोध नहीं कराया जा सकता है । इसी प्रकार स्वलक्षणको अनिर्देश्य और प्रत्यक्षको कल्पनापोढ कहना भी उचित नहीं है । बौद्ध स्वलक्षणको अनिर्देश्य कहते हैं । अर्थात् स्वलक्षणका किसी शब्दके द्वारा निर्देश (प्रतिपादन) नहीं किया जा सकता है । यदि स्वलक्षण अनिर्देश्य है, तो अनिर्देश्य शब्दके द्वारा भी उसका कथन नहीं हो सकता है । तथा स्वलक्षणको अनिर्देश्य मानने पर उसे अज्ञेय भी मानना पड़ेगा। क्योंकि जो सर्वथा अनिर्देश्य है उसका ज्ञान किसी प्रकार संभव नहीं है। और यदि प्रत्यक्ष कल्पनापोढ ( कल्पनासे रहित अर्थात् निर्विकल्पक ) है, तो 'कल्पनापोढं प्रत्यक्षं' इस प्रकारकी कल्पना भी उसमें नहीं हो सकती है।
बौद्ध कहते हैं कि शब्दके द्वारा स्वलक्षणका कथन नहीं होता है किन्तु अन्यापोहका कथन होता है। शब्द न तो पदार्थमें रहते हैं, और न पदार्थके आकार हैं, जिससे अर्थका प्रतिभास होने पर शब्दका भी प्रतिभास हो। यदि ऐसा है तो, जिस प्रकार अर्थमें शब्द नहीं है, उसी प्रकार इन्द्रियज्ञानमें विषय भी नहीं है। इसलिये इन्द्रियज्ञानके होनेपर भी विषयका ज्ञान नहीं होगा। यदि मान जाय कि विषयसे ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, इस
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