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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद- १
वास्तविक सम्बन्ध मानना आवश्यक है । सम्बन्धके अभाव में संसारका काम ही नहीं चल सकता है ।
नाना सम्बन्धियोंके भेदसे प्रत्येक पदार्थ अनेक स्वभाव वाला है, और वह अनेक क्षण तक ठहरता है । बौद्धोंके द्वारा माने गये निरन्वय क्षणिक पदार्थ द्वारा कुछ भी अर्थक्रिया नहीं हो सकती है । जो क्षण पूर्ण - रूपसे नष्ट हो गया वह क्या अर्थक्रिया करेगा । अर्थक्रिया वही कर सकता है जिसका सम्बन्ध आगे की पर्यायसे हो । मिट्टी के पिण्डसे घट बनता है । मिट्टीका पिण्ड नष्ट होकर स्वयं घटरूपसे परिणत हो जाता है । ऐसा नहीं है कि मिट्टी पिण्डके पूर्णरूपसे नष्ट हो जाने पर घट किसी कारणके विना अपने आप बन जाता हो । इस बातको सभी जानते हैं कि कारण ( मृत्पिण्ड ) ही कार्य ( घट ) रूपसे परिणत हो जाता है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि एक ही पदार्थ में उत्पत्ति, विनाश और स्थिति ये तीन अवस्थायें होती हैं । जो पदार्थ उत्पन्न होता है वही कुछ काल तक स्थित रहता है, और बादमें वही नष्ट हो जाता है । उत्पत्ति और नाशमें भी द्रव्यका अन्वय बना रहता है । ऐसा नहीं है कि उत्पन्न तो कोई होता हो, नाश किसी दूसरेका होता हो, और स्थिति किसी अन्यकी ही होती हो । मिट्टी के पिण्डके नाशसे घटकी उत्पत्ति होती है, उत्पन्न घट कुछ काल तक स्थित रहता है, और अन्तमें वही घट फूटकर मिट्टीमें मिल जाता है । इन सब पर्यायोंमें मिट्टी ज्योंकी त्यों बनी रहती है । जितने पदार्थ हैं उन सबमें उत्पाद, विनाश और स्थिति ये तीन अवस्थायें नियमसे पायी जाती हैं । इन तीनोंके विना वस्तुकी सत्ता ही नहीं हो सकती है । इन तीनोंका नाम ही सत्ता है । कहा भी है-'उत्पादव्ययप्रौव्ययुक्तं सत् । 'सद्रव्यलक्षणम्' ।
- तत्त्वार्थसूत्र ५।२९, ३० जिसमें उत्पाद, व्यय और धौव्य पाया जाता है वह सत् है । और सत् ही द्रव्यका लक्षण है ।
शंका-उत्पाद आदि तीन यदि वस्तुसे अभिन्न हैं तो तीन में से कोई एक ही रहेगा, क्योंकि एक वस्तुसे अभिन्न धर्मोमें भेद नहीं हो सकता है । और यदि उत्पाद आदि वस्तुसे भिन्न हैं तो उन तीनमें भी अन्य उत्पाद आदि तीन होंगे, और उनमें भी अन्य उत्पादादि होंगे। इस प्रकार अनवस्थादोषका प्रसंग होगा ।
उत्तर— उक्त दोष एकान्तवादमें ही हो सकते हैं । अनेकान्तवाद
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