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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ मानना आवश्यक है। यदि ज्ञानके दोनों आकारोंकी परस्परमें व्यावृत्ति न हो, तो दोनों से एक ही आकार शेष रहेगा, और दूसरे आकारके अभावमें एक आकारका भी सद्भाव नहीं बन सकेगा । क्योंकि ज्ञेयाकारके विना ग्राहकाकार और ग्राहकाकारके विना ज्ञेयाकार नहीं हो सकता है। ज्ञानाद्वैतवादी कहता है
नान्योऽनुभाव्यो बुद्धचास्ति तस्या नानुभवोऽपरः । ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् स्वयं सैव प्रकाशते ॥
-प्रमाणवा० २।३३७ ज्ञानका न तो कोई ग्राहक है, और न ग्राह्य । अतः ग्राह्य-ग्राहकभावसे रहित ज्ञान स्वयं प्रकाशित होता है। ऐसा कहनेका तात्पर्य यह है कि जब ज्ञानमें दो आकार ही नहीं हैं तब उनकी परस्परमें व्यावृत्ति कैसे हो सकती है। किन्तु ज्ञानको ग्राह्याकार और ग्राहकाकारसे रहित माननेपर भी ज्ञानमें उन दोनों आकारोंसे व्यावृत्ति तो मानना ही पड़ेगी। ज्ञानमें दो अकार न माननेपर भी उनकी व्यावृत्ति माननेसे मुक्ति नहीं मिल सकती है। इसी प्रकार चित्रज्ञानको मानने वालोंके यहाँ भी ज्ञानके लोहित, नील, पीत आदि आकारोंकी परस्परमें व्यावृत्ति मानना आवश्यक है । चित्रज्ञानके विषयभूत लाल, नील, पीत आदि पदार्थोंकी भी परस्परमें व्यावृत्ति है। यदि चित्रज्ञानके अनेक आकारोंकी परस्परमें व्यावृत्ति न हो, तो चित्ररूपसे उसका प्रतिभास ही नहीं हो सकता है। क्योंकि व्यवृत्तिके अभावमें चित्रज्ञानका आकार एक हो जायगा । और एक आकारका चित्ररूपसे प्रतिभास नहीं हो सकता है। और चित्रज्ञानके आकारोंमें भेद न होनेके कारण चित्रज्ञानके विषयभूत पदार्थों में भी भेद सिद्ध नहीं होगा। अत: चित्रज्ञानके अनेक आकारोंकी परस्परमें तथा चित्रज्ञानसे व्यावृत्ति है, जैसे कि चित्र पटके नाना रंगोंकी परस्परमें तथा चित्र पटसे व्यावृति है। चित्रज्ञान एक है, और चित्रज्ञानके आकार अनेक हैं। चित्र पट भी एक है और उसके रंग अनेक हैं । ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि अनेक नोलादि आकार ही हैं, एक चित्रज्ञान नहीं है, अथवा अनेक रक्त आदि वर्ण ही हैं, एक चित्र पट नहीं है। क्योंकि ऐसा कहनेपर इसके विपरीत भी कहा जा सकता है कि एक चित्रज्ञान ही है, उसके अनेक नीलादि आकार नहीं हैं. अथवा एक चित्र पट ही है, उसके अनेक रंग नहीं हैं।
यहाँ एक शंका हो सकती है कि यदि एक ही ज्ञान या वस्तु है तो उसका नानारूपसे प्रतिभास क्यों होता है ? इसका उत्तर इस प्रकार है ।
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