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कारिका-११] तत्त्वदीपिका
१२३ वस्तुके एक होनेपर भी इन्द्रिय आदि सामग्रीके भेदसे एक ही वस्तुका भिन्न-भिन्न रूपसे प्रतिभास होता है। जैसे एक ही वृक्षको दूरसे तथा पाससे देखनेपर दो प्रकारका ज्ञान होता है। इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि चित्र पटके एक होनेपर भी चक्ष आदि सामग्रीके भेदसे उसका नानारूपसे प्रतिभास होता है । तथा चित्रज्ञानके एक होनेपर भी अन्तःकरणकी वासना आदि सामग्रीके भेदसे उसमें नाना आकारोंका प्रतिभास होता है। अथवा प्रत्येक पुरुषमें भिन्न-भिन्न सामग्रीके सम्बन्धसे एक ही विषयके प्रति भिन्न-भिन्न प्रकारका स्वभाव होता है और भिन्नभिन्न स्वभावके कारण एक ही विषयका नानारूपसे प्रतिमास होता है । अतः जब इन्द्रिय आदि सामग्रीमें और पुरुषमें स्वभावभेद मानना पड़ता है, तो विषयमें भी स्वभावभेद मानना आवश्यक है।
प्रतिभास भेदके होनेपर भी यदि वस्तुको एक माना जाय तो केवल घटादि बहिरंग तत्त्व ही एक नहीं होगा, किन्तु अन्तरंग तत्त्व ( आत्मा) भी सर्वदा एक रूप ही रहेगा। उसमें क्रमशः सुख, दुःख आदिके कारणोंके मिलनेपर भी कोई स्वभावभेद नहीं होगा। अतः यह मानना आवश्यक है कि जितने प्रकारके कारणोंके साथ वस्तुका सम्बन्ध होता है उतने ही प्रकारके स्वभाव वस्तुमें होते हैं और उन स्वभावोंकी परस्परमें व्यावृत्ति होती है। यहाँ बौद्ध कहते हैं कि सम्बन्ध की तो कोई सत्ता ही नहीं है
पारतन्त्र्यं हि सम्बन्धः सिद्धे का परतन्त्रतः । तस्मात् सर्वस्थ भावस्य सम्बन्धो नास्ति तत्त्वतः॥
-सम्बन्धप० परतन्त्रताका नाम सम्बन्ध है। किन्तु जो वस्तु निष्पन्न हो गयी है उसमें परतन्त्रताका कोई प्रश्न ही नहीं है। इसलिए किसी भी पदार्थमें कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है।
उक्त कथनमें कोई तथ्य नहीं है। यदि किसी पदार्थका दूसरे पदार्थके साथ साक्षात् या परम्परासे कोई सम्बन्ध न हो, तो सब पदार्थ नि:स्वभाव हो जाँयगे। यदि गुण और गुणीमें कोई सम्बन्ध न हो, तो न गुणका ही स्वतंत्र सद्भाव हो सकता है, और न गुणीका ही । चक्षु और रूपमें किसी प्रकारका सम्बन्ध न हो, तो चक्षुके द्वारा रूपका ज्ञान नहीं हो सकता है। कार्य और कारणमें किसी प्रकारका सम्बन्ध न हो तो कारणसे कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। इसलिए पदार्थोंमें
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